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स्मृति-प्रखरता के प्रकार
मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी प्रथम
भारतवर्ष के श्रमण-निर्ग्रन्थो व ऋषियों ने योग-साधना से ओझल न हो सके। स्मृत प्रकरण स्वतः ही समय पर पर विशेष बल दिया है। इन्द्रियो का सयम, मन का उद्बोधन का रूप ले लेता है। निग्रह और वाणी के निरोध को अध्यात्म का मुख्य अंग स्मृति की दिलक्षणता में मानसिक एकाग्रता, कल्पना माना है। किन्तु यह अध्यात्म रोमा नहीं है, जो मनुष्य शक्ति की प्रवणता और बुद्धि की स्थिरता अनिवार्य हो को जीवन से उपरत करे। भगवान महावीर ने कहा है : जाती है। महर्षि पतजलि ने चित्त की पाच अवस्थाएं "जे अज्जत्थं जाणई, से वहिया जाणई, जो अध्यात्म को मानी ह. १-क्षिप्त, २-मूढ, ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र जानता है, वह वाह्य को जानता है। इससे यह निष्कर्ष ५-निरुद्ध । क्षिप्त, मूढ और विक्षिप्त ये अवस्थाएं विकृत सहज ही निकलता है कि भारतीय ऋषियो का चिन्तन मन की है । एकाग्र मन तब होता है, जब चिन्तन के लिए केवल पारलौकिक ही नहीं रहा है। उन्होने जीवन के एक ही अवलम्बन होता है। निरुद्ध अवस्था मे मानसिक उभय पक्षो को साथ रखकर ही सोचा, पाया और ममाज स्थिरता के लिए किसी भी प्रकार के अवलम्बन की पावको दिया।
श्यकता नहीं होती। यह प्रत्युत्कृष्ट स्थिति है, जिसे योगअवधान विद्या उस माधना की एक विशेप उपलब्धि निरोधक मुनि ही पा सकते है। एकाग्रता की स्थिति सर्वहै, जो स्मृति के द्वार से प्रविष्ट होकर प्रात्मा तक पहुचती माधारण से लेकर विशिष्ट साधको तक से सम्बन्ध रखती है। पाचो इन्द्रियाँ और मन, ज्ञान के मुग्य माधन है। है। एकाग्रता स्मृति का उपादान बनती है और कल्पना किसी भी पदार्थ के देखने, सुनने, स्पर्श करने, मू घने यौर की पटुता और बुद्धि की महज स्थिरता निमित्त । किन्तु, चखने के साथ ही मन का उममे लगाव होता है, जिसे यह निमित्त भी उपादान के समकक्ष पहुंच जाता है। "ग्रहण" कहा जाता है। प्रात्मा का जब उसके साथ आज के युग मे प्रत्येक व्यक्ति से यह सुना जा सकता घनिष्ट सम्पर्क स्थापित हो जाता है, तब उसे 'धारणा' है कि म्मरण-शक्ति वहत कमजोर हो गई है। प्रात सोचा कहा जाता है। जब वही ज्ञान तत्काल, कुछ समय बाद गया कार्य सायं विम्मृत हो जाता है। इस अभाव को या लम्बे समय वाद दुहराया जाता है, तब वह उद्बोधन पूर्ति के लिए मनुष्य ने अपनी स्मृति को बढाने के लिए होता है। हम प्रतिदिन सैकड़ो वस्तुओ, मनुष्यो और विशेष उपक्रम नहीं किया। केवल एक साधन डायरी का प्राकृतिक दृश्यों को देखते है, परिचित और अपरिचित प्रारम्भ किया। जिस दिन जो कार्य किया जाना है, उसे सैकड़ो शब्द सुनते है, किन्तु स्मृति मे कुछ नहीं रह पाता। उस दिन के कोष्ठक में लिख दिया जाता है। किन्तु इसका तात्पर्य है कि 'ग्रहण' के बाद ज्ञान का धारणा मे ग्राफिस जाते हुए डायरी घर रह जाए और घर जाते हुए परिणमन नहीं हो सका। इस प्रकार धारणा के बिना आफिस मे रह जाए, तो उस स्थिति में क्या बीते ? प्रतिदिन दर्शन और श्रवण होता है और वह अपार्थक ही भुलक्कड़ के लिए यह भी तो एक समस्या होती है कि चला जाता है। विना एकाग्रता के धारणा सम्भव नही वह जहाँ जाए, उससे पहले डायरी को याद रखे। होती। जब कार्यरत एक इन्द्रिय को मन के साथ योजित मनुष्य बहुघन्धी है । उसके पास समय बहुन थोड़ा है कर किसी विशेष स्थान पर केन्द्रित कर देते है, स्वत: ही और काम बहुत अधिक । वह एक साथ बहुत सारे कामों वह ग्रहण के बाद धारणा बन जाता है। किन्तु धारणा में को निपटाने की सोचता है । यही उलभन उसकी विस्मति भी स्थायित्व तब आता है, जब एकाग्रता के माथ हमारी का कारण बनती है । एक कार्य को करते हुए दूसरे कार्य कल्पना शक्ति और अनुस्यूत हो जाती है । अर्थात् ज्ञान के को मस्तिष्क मे न लाया जाये और सम्बन्धित विषय से प्रतिग्रहण के साथ अपने परिचित विचारों या तत्सम अन्य रिक्त और कुछ न सुना जाए, तो कोई कारण नही है कि उपकरणो के साथ ग्रहीत पदार्थ या शब्द का उचित स्मृति में कमजोरी पाए। एक रील पर फोकस ठीक कर संयोजन करना होगा, जो किसी भी परिस्थिति मे स्मृति चुकने पर जब एक ही फोटो खीचा जाता है, तो वह