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भारतीय दर्शन में योग
विश्व में अंशतः अभिव्यक्त देखते है। परन्तु जीवन को सम्बन्ध कराये। धर्म मोक्ष का प्रधानतम साधन है; अत. उन प्रतीतियो के पीछे जाकर देखने पर सारा जीवन ही जितने भी धार्मिक व्यापार है, वे सब योग की परिधि में प्रकृति का विशाल योग दिखाई देता है, उस प्रकृति का है। इस व्याख्या का फलित होता है; 'वत्थु सहावो जो अपनी सभाव्य गवितयो के सब वृद्धिशाली प्राविर्भाव धम्मो'--यात्म-रूप वस्तु का स्वभाव- ---धर्म ही योग है। मे पूर्णता साधित करने और अपनी दिव्य वास्तविक सत्ता उपर्युक्त परिभाषाओं में जितना योग शब्द का अर्थ के साथ ।" दूसरे शब्दो मे अरविद का योग मनुष्य जाति जोडना उपयुक्त बैठता है, उतने अन्य अर्थ नहीं । फिर भी मे भगवान् पाना और प्रकट करना है। इस योग सभी परिभापायो में सत्याश अवश्य रहता है। क्योंकि का सागा यही है कि हम अपने आपको भगवान् के अन्तिम लक्ष्य सबका एक है - यात्मस्थित शक्तियो के समक्ष प्रस्तुत कर दे और भगवान् की उत्कृष्ट ज्योति उत्कर्पण एव बाह्य विषयो के अपकर्षण द्वारा मुक्ति व
और पवित्रता को अपने मन मे ले पावें । विवेकानन्द ने शाश्वत शान्ति की मोर अग्रभर होना। इसलिए माराश मानसिक नियमन को योग कहा है।
के रूप मे हम कह सकते है, एक ही मजिल की अनेक व्यास जी ने प्रथम सूत्र की व्याख्या मे लिखा है कि राहे है जैसे कि एक ही वृक्ष की अनेक शाग्वाएं । 'योग समाधि' । वाचस्पति मिश्र ने उसे स्पष्ट किया है
योग का विशाल साहित्य कि यहाँ योग शब्द युजनर् योगे इस धातु से नही बना है,
वेद और उपनिषद् : अपितु युज् समाधों से बना है। किमी महपि ने उद्योग, सयोग और वियोग, इन तीनो के समवापी रूप को गोग
भारतीय दर्शनो की तीन प्रमखनग धागा रही है--- बताया है। अभ्याम उद्योग है, वैगग्य वियोग और पणि
वैदिक, बौद्ध और जैन । तीनाही परम्पराओं में न्यूनाधिक धान सयोग है। अात्माद्वैत वाद में 'ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग
मात्रा में योग का विशापण मिलता है। वैदिक माहित्य एव सम्यग् ज्ञान का जो साधन है, वही योग है।
का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है - ऋग्वेद । ममे योग शब्द 'प्रवृत्तिलक्षणो योग' प्रवृत्तिमात्र योग है, यह परिभाषा
का प्रयोग प्रचर मात्रा में किया गया है, पर उसका अर्थ भी की जाती है।
प्राय जोडना ही अभिप्रेत रहा है, ममाधि व आध्यात्मिक
अर्थ वहां विवक्षित नही है। पर इसके उत्तरवर्ती साहित्य बौद्ध परम्परा में 'कुशल पवित्तीए जोगो'-- -कुशल
--उपनिपदो मे प्राध्यात्मिक अर्थ में भी योग शब्द का प्रवृत्ति को योग कहा है।
प्रयोग है। श्वेताश्वर उपनिषद् में स्पष्ट रूप से योग जैन परम्परा मे हेमचन्द्राचार्य ने योग को निम्नोक्त और योगोचित्त, ग्थान प्रत्याहार धारणादि योगाङ्गो रूप मे अभिव्यजित किया है—"चार वर्गो मे मोक्ष का वर्णन भी मिलता है।" मन्यकालीन एव अर्वाचीन सबसे प्रधान है। योग उसका कारण है। ज्ञान, दर्शन उपनिषद तो केवल योग विषयक ही है, जिनमे योगशास्त्र और चारित्र; इस त्रिवेणी का संगम ही योग है।' की भाति योगाडोका मागोपाग वर्णन है। वे निम्नोक्त आचार्य हरिभद्र के अभिमतानुसार धर्म का व्यापार मात्र योग है अर्थात् योग वह है, जो मोक्ष के माथ साक्षात
४ योगविगिका १
मोक्खेण जोयणाग्रो जोगो सव्वो वि धम्म वावारो १. योग विचार, पृ० १।
परिसुद्धो विन्नेग्रो, ठाणाई गमो विसंसेणं २. आत्माद्वैतवाद ।
५. श्वेताश्वतर उपनिषद्, अ०२ परमार्थब्रह्मप्राप्ति मार्गभूत सम्यग् साधनीभूतो योग । ६. त्रिरून्नत स्थाप्य समं शरीर, ३. योगशास्त्र, पृ० १, श्लो० १५ ।
हृदीन्द्रियाणि मनसा सनिरध्य । चतुर्वर्ग ऽग्रणी मोक्षो योगस्तस्य च कारणम्
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत् विद्वान्, ज्ञान, श्रद्धा चारित्र रूप, त्रयं च स ।
स्त्रोतासि सर्वाणि भयावहानि ॥८॥