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अनेकान्त
श्रीपुर नगर के राजा मारेंजय के पुत्र नंग और अनंग और अनंगकुमार के स्वर्णाचल से मुक्ति गमन के समाचार कुमार की कथा वणित है। बताया गया है कि उस समय को सुनकर सुवर्णभद्र ने सोनगिरि क्षेत्र के लिए यात्रा मालवदेश के अरिष्टपुर नगर मे धनञ्जय नाम का राजा सघ निकाला और वहाँ जाकर दीक्षा धारण कर ली। राज्य करता था। इस राजा के राज्य पर तेलग देश के घोर तपश्चरण करने के उपरान्त उन्होने पञ्च सहस्र राजा अमृतविजय ने अकारण ही माक्रमण किया । धन- मुनियो सहित मोक्षपद प्राप्त किया। जय ने माण्डलिक राजा अरिञ्जय को अपने सहायतार्थ
सोनागिरि तीर्थक्षेत्र की यात्रा करने से सभी प्रकार आमन्त्रित किया । प्रारजय क दाना पुत्र नग मार अनग- की लौकिक इच्छाएं पूर्ण होती है । कवि ने बताया है-- कुमार ससैन्य अरिञ्जय की सहायता करने के हेतु अरिष्ट
यस्यां कृतायां भावेन संसारे पुत्रकामिनाम् । पुर पहुंचे और युद्ध मे उन्होने अमृतविजय को परास्त कर
सत्पुत्र लाभस्तद्वाद्धि धनलाभो धनाथिनाम् ॥ दिया तथा उसे बन्दी बना लिया गया । बन्दी बन जाने से
धर्मार्थिनां धर्मलाभः कामलाभस्तुकामिनाम् । अमृतविजय के मन में अत्यन्त ग्लानि उत्पन्न हुई और
मुमुक्षणां मोक्षलाभो बहुनोक्तेन कि बुधाः ।। उनका मन विरक्ति से भर गया। इसी समय अरिष्टपुर
ईदक पदार्थो नवास्ति यस्य लाभो न वै भवेत् । मे चन्द्रप्रभ भगवान् का समवशरण पाया। भगवान् की
वदमानाः पूजयंतो ये स्वर्णाचलमुत्तमम् ॥ दिव्यध्वनि प्रवाहित हुई। उनके उपदेश को सुनकर
-स्वर्णाचलमाहात्म्यम्, १६।२४-२६ धनञ्जय, नंग, अनग आदि विरक्त हो गये और सभी ने जिन दीक्षा ग्रहण की। इस सन्दर्भ मे कवि ने चन्द्रप्रभ
सोनागिरि क्षेत्र की वन्दना करने से पुत्रार्थी को भगवान् के मुख से अमृतविजय और धनञ्जय की शत्रता सत्पुत्र लाभ, धन के इच्छुको को धन लाभ; धर्माथियो के कारण का वर्णन पूर्वभव की घटनाग्रो के कथन द्वारा धमलाभ एव कामाथिया का कामना को पूति होता है। निर्दिष्ट किया है। अपनी पूर्वभवावलि के श्रवण से ही अधिक क्या, इस पावन क्षेत्र का वन्दन करने से मुमुक्षुओ धनञ्जय को वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ।
को मोक्ष की प्राप्ति भी सम्भव है। विश्व में ऐसा कोई तदनन्तर भगवान् चन्द्रप्रभ का समवशरण विहार पदाथ नहा हजा स्वणाचल का वन्दना पार पूजा करने करता हुआ स्वर्णाचल पर पहुँचा। यहाँ बत्तीस लाख वर्ष
वालो को प्राप्त न हो सके। जो भक्तिभाव पूर्वक इस क्षेत्र तक भव्यजीवो को कल्याणमार्ग का वे उपदेश देते रहे। का पूजन-वन्दन करता है, उसका पूजा प्रातष्ठा दवा दरा
होती है। अनन्तर पाठवे अध्याय से कथा दूसरी मुड़ती है। उज्जयिनी के राजा श्रीदत्त और रानी विजया के काई
कवि ने इसी अध्याय मे स्वर्णाचल की यात्रा का पुत्र नही था। राजा-रानी पुत्राभाव के कारण चिन्तित
महत्त्व प्रतिपादित करते हुए इस क्षेश का पूजन-वन्दन रहते थे। सौभाग्वश वहाँ प्रादिगत और प्रभागत नामक
को बत्तीस करोड प्रोषधोपवास का फलदायक लिखा है। चारण ऋद्धिधारी मुनिराज पधारे। उन्होंने राजा-रानी
यथाको सोनागिरि की यात्रा विधिपूर्वक करने का उपदेश
यः श्रीस्वर्णाचलस्यात्र यात्रामिष्ट प्रदायिनीम् । दिया। राजा ने सोनागिरि की यात्राके लिए सघ निकाला
पापघ्नी तथा पुण्यद्धिनों भव्यसत्कृताम् ॥ तथा विधिपूर्वक ससघ उस पुण्य भूमि की वदना की।
कुर्याद् भावेन संयुक्तो द्वात्रिंशत्कोटिसम्मितः । इसके फलस्वरूप राजा-रानी के सुवर्णभद्र नामका पुत्ररत्न
यत्फलं प्राप्यते भव्यर्वतः प्रोषषनामभिः । उत्पन्न हुमा। वयस्क होने पर सुवर्णभद्र का विवाह
प्राप्नुयाविह संसारे तद्वदेव विनिञ्चयम् । सम्पन्न हुआ। कालान्तर मे नग, अनगकुमार मुनिराज
तस्मादवश्यमस्यात्र यात्रा कार्या विचक्षणः ।। उज्जायनी पधारे। उनके उपदेश से श्रीदत्त ने दीक्षा ग्रहण
-स्वर्णाचलमाहात्म्यम् १६:१२-१४ कर ली और स्वर्णाचल पर जाकर तप करने लगा। नंग इस प्रकार कवि देवदत्त ने सोनागिरि क्षेत्र की यात्रा