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मोहन जोदड़ों कालीन और बावुनिक जैन संस्कृति
वास्तवमें श्रमण-संस्कृतिके जन्मदाता भारतके क्षत्रिय जन है, यही कारण है कि भारतके सभी अवतार क्षत्रिय कुलीन महापुरुष ही है।
प्रागेतिहासिककालसे लेकर भारतके सभी देशोंके क्षत्रिय लोग जहां युवावस्थामें शारीरिक पराक्रमसे ऐहिक शत्रुओंको जीत, भूमंडलके अधिपति बनते थे, वहा वे अन्तिम जीवनमें इन्द्रिय भोग, बन्धुजन और राज्य-वैभवको छोड़ तपः पराक्रमसे अन्तः शत्रुओंको जीतकर जिन शिव अरिहन्त और विश्वपति बन जाते थे। वे अपने आदर्श और उपदेश-द्वारा अगणित भव्य-जनोंको संसार-सागरसे पार उतारनेके कारण तीर्थकर, अवतार बन जाते थे।
भारतीय साहित्यमें क्षत्रियोंकी महिमाका बखान
इन क्षत्रियोंकी उक्त जीवन-वृत्तिको ही लक्ष्य करके श्री समन्तभद्राचार्यने तीर्थकर शान्तिनाथ (चक्रवर्ती) के सम्बन्ध में कहा है :
यस्मिनभूबाजनि राजचक्र, मुनी बया-बोषिति-धर्मचक्रम् ।
पूज्ये मुहः प्रांजलि देवचक्र, न्यानोन्मुखे ध्वंसि तान्तचक्रम् ॥७९॥ (स्वयम्भूस्तोत्र) अर्थात्--राज्यावस्थामें राजा लोग उसके आश्रित हुए, मुनि अवस्था धारण करनेपर दयारूप किरणोंवाला धर्मचक उसके आधित हुआ, केवलज्ञानकी उत्पत्ति होकर अर्हत्पूज्य बननेपर देवगण उसके आगे हाथ जोड़े खड़े रहे और ध्यानकी अवस्थामें कर्मचक्र ध्वस्त होकर उसके आश्रित हो गया।
इसी भावको ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदोंमें इस प्रकार व्यक्त किया गया है:
(अ) तस्मात् पात्रात्पर नास्ति, तस्मा ब्राह्मणः क्षत्रियमवस्ताबुपास्त राजसूये, पत्र एक तयशो वर्षाति, सैपा क्षत्रस्य योनिर्यवबह्म-बृह. उप. ९.४.११--शत. ब्राह्मण १४.४.२ २३
अर्थ-क्षत्रियसे कोई बड़ा नही है, इसीलिये राजसूय यज्ञमें ब्राह्मण भी नीचे बैठकर क्षत्रियकी उपासना करता है, राजसूय यज्ञका यश क्षत्रिय ही धारण करता है, जिसको ब्रह्मविद्या कहा जाता है, वास्तवमें उसीसे क्षात्रधर्मकी उत्पत्ति हुई है--अर्थात् क्षत्रियोकी जीवनचर्याका आधार ब्रह्मविद्या है।
(आ) शत. बा. १४.१ ४.११ में कहा है कि युगकी आदिमें एक ही प्रकारकी जनता थी, इसलिये लोककी उन्नति न हो सकी, ब्रह्माने लोक-कल्याणार्थ प्रथम क्षत्रिय वर्गको ही पैदा किया था, (दुनियाके जितने भी पूजनीय देवता) इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु, ईशान आदि हुए है, वे सब क्षत्रिय ही थे।
(इ) "सव व्यभवत्, तच्छेयो रूपयत्यसृजत् धर्मम्, तदेतत्क्षत्रस्य क्षत्रं सदमस्तस्माइर्मात् परं नास्ति, अयो अबलीयान् बलीयांस सभा शंसते धर्मेण यया राशवम्"वह. उप. १.४.१४. ।
अर्थ-तीनों (क्षात्र, वैश्य, शूद्र) वर्णकी व्यवस्था करनेपर भी जब लोकका कल्याण न हुआ तब कल्याणात्मक धर्ममार्गको पैदा किया गया, वह कल्याणात्मक धर्म-मार्ग क्षत्रियों का ही विशेष मार्ग था, उस धर्म-मार्गसे बड़ा और कोई मार्य जीवनकल्याणके लिये नही है, चूकि जैसे राजा द्वारा शत्रु जीते जाते हैं, वैसे ही इस धर्म-द्वारा निर्बल जन भी बलिष्ठ अन्तः शत्रुओंको विजय कर लेते है।
(६) अथर्ववेदमें इन क्षत्रिय व्रात्योंका उल्लेख करते हुए कहा है:सोऽरज्यत् ततो राजन्योऽजायत ॥१॥ स विशः सबन्नन्ममन्नाबमभ्युबतिष्ठित् ॥२॥ विशाच स सबन्धूनां चासस्य चान्नाबस्यप प्रियं धाम भवति यः एवं बेह-अथर्व काण्ड १५, सूक्त ८.।