Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 330
________________ हिरण ७-८। विरोध और सामन्जस्य [२६३ नहीं था, पर इससे कहीं अधिक इस शब्दके अर्थका त्मिक मुक्ति देनेका आश्वासन दिया, पर क्या भाजअनथ हुआ है। फितनी ही स्त्रियाँ सतीत्वको स्वधर्म की परिवर्तित परिस्थितिमें सामाजिक एवं-आर्थिक समझकर चितामें जल मरो, साम्प्रदायिक-दंगों में भी स्वतंत्रताके लिए भी "स्वधर्मे निधनं श्रेयः" का सहारा 'इसी स्वधर्म' की दुहाई दी गई? हम यह मान लिया जा सकता है ? यह बात राजनैतिक दृष्टिसे लेते है कि विशेप ऐतिहासिक परिस्थितियों में ही नहीं--सांस्कृतिक दृष्टि से भी विचारने योग्य है। गोनाकारने त्वचमके नाम पर शुद्रांको भी आध्या- नरसिंहवाड़ी अल्मोड़ा २०-६-५२ विरोध और सामन्जस्य (प्रोफेसर डा. हीरालाल जैन, नागपुर) विद्वत्ममाज पर यह बात स्वीकृत हो चुकी है कि जो भमैथुन या ब्रह्मचर्यको एक स्वतंत्र पर बतलाया, भगवान महावीरने कोई नया धर्म स्थापन नहीं किरा, इसमे उनका प्रयोजन सह पाहि प्रमथुन या स्त्रीपरित्याग किन्तु उन्होंने एक प्राचीन प्रचलित धर्मका पुन: मंग्कार मात्रसे ही रम्यादान विषम की परिपूर्णता नहीं किया। उपप्राचीन पर अनुयायी श्रम' कहलाते समझना चाहिये, किन्तु इस व्रतका न्यायत: परिपालन थे। श्रमणीका एक यति-सम्प्रदाय था जिसवैदिक सम्म तो तभी हो सकता है जबकि बाह्य समस्त परिग्रह, यहां दायके 'ब्राह्मणों में अनेक मौशिक बातो मतभेद था। तक कि अपये पप वस्त्रका भी पूर्णत: स्याग किया श्रमण 'चातुर्याम' अर्थात् पार संपमोका पालन प्रकार ज्ञाय हमी भादर्शके अनुरूप उन्होंने बाईस पोषहोंकरने थे। ये चार संयम थे--अहिंसा, अमृपा, भाचार्य का भी सुसंगठन किया जिनका पालमभी श्रमणो लिये ओर प्रवाहिस्तादान । जब महावीर इस श्रमण सम्प्रदायमें अनिवार्य ठहराया गया प्रकार उनके अनुसावी प्रविष्ट हुए तब उन्होंने देखा कि श्रमएका भरण न तो परचे नियंभ्य बन गये. 'मन' भी कहलाने लगे पूर्णत: परिग्रह रहित है और म माकुलतासे मुक्त। इस. और वे प्रामीन चातुर्याम श्रमण सम्पवायसे पूर्वक लिये उन्होंने चतुर्थ संम्म अर्थात् प्रतिस्थादान बहित्था हो गये। दामामो वेरमणं) को दो स्वतन्त्र प्रतों में विभाजित कर भगवान महावीर के पट्टशिष्य गौतम गवरक क दिया-एक प्रमथुन और दूसरा अपरिग्रह । इसका यह चातुर्याम सम्प्रदायके मायक श्रमण केशीको यह पास समअर्थ नहीं समझना चाहिये कि अमैथुन अर्थात् ब्रह्मवयंका मानेमें सफल हुपकि महावीरने जो विशेषता उनके धर्ममें इससे पूर्व श्रमणों द्वारा पालन नहीं किया जाता था। उत्पम की वह उस प्राचीन सम्प्रदायके वन वियही पथार्थत: तो परिस्थिति यह थी कि चारित्रका सारा भार नहीं थी, किन्तु उससे उस प्राचीमधर्मका ही सच्चा मर्म इसी स्त्री-परित्याग रूप भवहिम्यादान पर था । स्त्रीका और प्राण प्रकट किया गया है। इस स्पष्टीकरणसे पह परित्याग हो जानेपर अमय खिये अन्य परिप्रोंक चातुर्याम पाखा पार सम्प्रदाय और महावीर भगवानका सम्बन्धमें उतनी कदाई नहीं रहती थी। महावीर स्वामीने भाचेलक सम्प्रदाय ये दोनों एकत्र हो गये और उन्होंने प्राचीनवार यामोंके स्थान पर पांचोंको स्वीकार Proceedings and 'Iransactions of the 13th All India Oriental Conference लिया । इस सम्मेलनमें वस्त्रो सम्बन्ध को समझौता 1946 Part II pp. 402 में ऐं अंग्रेजी लेखकका हुमायामान पता विपके रूपमें हुमा, क्योकि . अनुवाद। +उचराध्ययन सूत्र २ केम्बिम बिस्दी माफ इंडिया, हा, मादि। x उत्तराध्ययन सूत्र"

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