Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 448
________________ आगाम्मटरवरल्याहुबालोजन पूजा % D इसी बीच में युद्ध सामने सबके आया, दाव-पेंच ओ. युद्धकलाका रदिखाया । एक तरफ थे श्राप, उधर भरतेश खड़े थे, अपनी अपनी विजय-प्राप्तिके लिये अड़े थे ।। १४ ॥ इतने में ही एक सपाटा तुमने मारा, हाथों लिया उठाय भरतको कन्धे धारा । पटक भूमि पर दिया नहीं, यह भाव विचारा-आखिर तो है पूज्य पितासम भ्रात हमारा॥१५॥ उधर क्रोध भरतेश हृदयमें पूरा छाया, सह न सका अपमान घोर, सब न्याय भुलाया। चकरनको याद किया, वह करमें आया, निर्दय होकर उसे आप पर तुरत चलाया ॥१६॥ हहाकार मच गया, चक्र नभमें गुर्राया, शंकित थे सब हृदय, सोच अनहोनी माया। पर वह बनकर सौम्य तुम्हारे सम्मुख पाया, परिक्रमा द तीन तुम्हें निज सीस झुकाया ॥१७॥ निष्फल लौटा देख, भरत दुखपूर हुआ था, उसका सारा गर्व आज चकचूर हुआ था। होकरके असहाय, पुकारा-'हारा भाई !' तब तुम भूमि उतार उसे धिक्कार बताई ॥ १८ ॥ विजय-प्राप्ति पर भगत-राज्यश्री सन्मुख धाई, वरमाला ले तुम्हें शीघ्र वह वरने आई। . तब तुमने हो निर्मत्व दुतकार बता; जग-लीला लख पूर्ण विरक्ती तुम पर छाई ।। १६ ।। 'वेश्या-सम इस राज्य-रमाको मैं नहिं भोD, अपना भी सब राजपाट मैं इस दम त्यागूं। पिता-मार्ग पर चलूँ, निजात्माको आराधू, नहीं किसीसे द्वेष-राग रख संयम साधू, ॥२०॥ ये थे तव उदार, जिन्हें सुन रोना आया, भरतराजका निठुर हृदय भी था पिघलाया। निज-करणीका ध्यान प्रान वह बहु पछताया, गद्गद होकर तुम्हें खूब रोका समझाया ।। २१ ।। पर तुम पर कुछ असर न था रोने-धोनेका, समझ लिया था मर्म विश्व-कोने-कोनेका । आत्म-सुरस लौ लगी, और कुछ तुम्हें न भाया,अनुनय-विनय किसीका भी कुछ काम न पाया ॥२२।। अहो त्यागिवर ! त्याग चले सब जगकी माया, वस्त्राभूषण फेंक दिये, जब रस नहिं पाया। निर्जन वनमें पहुँच खड़े सध्यान लगाया, प्रकृति हुई सब मुग्ध देख तव निर्मम काया ।। २३ ।। नहीं खांस-वकार, नहिं कुछ खाना-पीना, नहीं शयन-मल-मूत्र, नहीं कुछ नहाना-धोना। नहीं बोल-बत नाव, नहीं कहिं जाना-बाना, खड़े अटल नासाम-दृष्टि पर दिकपट-बाना, ॥२४॥ बैंबी बना कर चरण-पासमें नाग बसे थे, कर-जन्तु आ पास, करता भाव तजें थे। बेल-लताएँ इधर-उधरसे खिंच आई थीं, अगोंसे तव लिपट, खूब सुख-सरसाई थीं ॥२५॥ तुम थे अन्तष्टि, देखते कर्म-गणोंको-योगऽनलमें भस्म, विकसते स्वात्म-गुणोंको। इस ही से आनन्द-मग्न थे, गुण-अनुरागी, बहि-चिन्तासे मुक्त, मोह-ममताके त्यागी ॥२६॥ हे योगीश्वर ! योग-साधना देख तुम्हारी, चकित हुए सब देषि-देवता औ' नर-नारी। एक वर्ष तुम खड़े रहे निश्चल-अविकारी, भूख-प्यास औ' शीत-घाम-बाधा सब टारी॥२७॥ योग-कीर्ति भरतेश सुनी, तब दौड़े आए, चरणोंमें पड़, सीस नमा, तव गुण बहु गाए। उसी समय अवशिष्ट मोह सब नष्ट हुआ था, शेष घातिया कर्मपटल भी ध्वस्त हुवा था ॥२८॥ केवल रवि तव आत्म-धाममें उदित हुआ था, विश्व चराचर शान-मुकुरमें झलक रहा था। दर्शन-सुख औ' वीर्य-शक्तिका पार नहीं था, जीवन्मुक्त स्वरूप भापका प्रकट हुआ था ॥ २६ ॥ लखकर यह सब दृश्य,देव-गण पूजन आए, हर्षित हो अतिसुरभि पुष्य नमसे बरसाए। दुन्दुभि वाजे बजे, शोर सुन सब जन घाए, पूजाकर, निज सीस नमाकर, अति हर्षाए ॥३०॥

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