Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 472
________________ किरण १२] मैं बाँख फोड़ कर चलूँ या भाप योतल न रावें [४१६ यह हुई बाहरी बात, कानेपनकी भीतरी भाषना क्या एक और मित्र है। घरमें एक लड़का है, एक लड़की! है। एक लोक-कथा है कि मां का काना बेटाहरद्वार गया। लड़केका विवाह हुचा, तो उन्होंने लड़की बालेसे उसी खौटा, तो मां ने पूछा-"हरद्वारमें तुझे सबसे अच्छा क्या तरह रुपया वसूल किया, जैस पुलिस वाले किसी चौरमे लगा रे?" गाँवके भोले बेटेने तबतक कहीं बाज़ार देखा चोरीकी जानकारी उगलवाते हैं। बादमें उन्हें बाई हजार नहीं था । बोला-"मां हरद्वार का बाजार घूमता है।" रुपये मिले, पर उम्मीद थी पांच हजार की। ये शान्त रहे, मां हरद्वार हो पाई थी। बाज़ार घूमनेकी बात सुनकर पर दूसरे दिन बेटेने फैल भर दिवे कि यह तोवह लड़कोही वह घूम गई और चौंककर उसने पूछा- कैसे घूमता हैरे, नहीं है जो पहले दिखाई थी; भला मैं इसे कैसे स्वीकार हरद्वारका बाज़ार ? कर सकता हूँ। चार-पांच घण्टेकी रस्साकशीके बाद बाई बेटेने नए सिरेसे पाश्चर्य में डूबकर कहा-'मां, मैं हजार और मिल गए तो बरकी रूपमें लचमी और गुणमें हरकी पैड़ी नहाने गया, तो बाजार इधर था और नहाकर सरस्वती हो गई। लौटा, तो इधर हो गया।" दुद पाकर भी मां हंस पड़ी मिले, तो मैंने कहा-"आपने तो कमाईको भी मान और उसने बेटेको छातीसे लगा लिया । कर दिया खून निकालने में !" बिना शरमाये और किसके दूसरे शब्दोंमें कानेका अर्थ है-एकांगी; जो प्रश्नको, वे बोले-"बिना दवाये ग से रस कहां निकलता है भाई साहब। सन्यको, इकहरा यानी अधूरा देखता है। कोई तीन वर्ष बाद उन्होंने अपनी बेटीका ब्याह चलती रेल स्टेशनपर भा ठहरी । भीतर डब्बे में कुछ रचाया, तो करमकी बान, उन्हें उन जैमाही समधी मिल मुसाफिर जिनमें एकका नाम 'क' और डब्बेके बाहर गया । ऐसा चूसा कि मन द पड़ गए और ऐसा कसा कि दूसरा मुसाफिर जिसका नाम 'ख'। ख चटखनी खोल करवट न ले सके। विवाहके बाद एक दिन समाजकी भीतर पाना चाहता है पर 'क' उसे कहता है-"अरे दुर्दशापर आँसू बहातेमे वे कह रहे थे-"मारे यहाँ भाई, पीछे तमाम गाड़ी बाली पड़ी है, वहां क्यों नहीं चले लः की वालेको नी कोई प्रादमी ही नहीं समझता। जाते" कम्बख्त मुझे इस तरह देखता था, जैसे मैं उसके बापका ___'क' एक सुन्दर नौजवान है, ग्वाम उसकी दोनों आंखें कर्जदार है।" नो बहुतही सुन्दर है पर मानसिक रूपसे वह काना है, जी में पाया. कह दूं-तीन वर्ष पहले तो आपको क्योंकि मसाफिराकी सुविधाके प्रश्नको यह अधूरे रूपमें गनकी उपमा बहत पमन्द थी भाई साहब! ही देखता है, पर क्या हम 'क' की निन्दा करें और 'ख' बीकानेपनकी बातदेचारेका बाजार म गयाको अपनी महानुभूति दें? देने में दाएँ तो लेने में बाएँ! यह हो सकता है, पर अगलेही स्टेशन तक; क्योंकि एक और मित्र है, जब मिलते हैं; अपने हकलीत वहां 'ख' डब्बेके दरवाजे ना पड़ता है और उपर चढ़ते बेटेकी शिकायत करते हैं-'कोई बात सुनताही नहीं, सदा मुसाफिरोंको मक-झोरता है-"जब पीछेके डब्बोंमें जगह अपने मनकी करता है। नाकमें दम है पगिडतजी! ऐसी खाली पड़ी है, तो यहां क्यों घुस मारहे हो?" चढ़ने वाले श्रौलादसे तो बेऔलाद भखा!! नहीं मानते, तो कहता है "हमारे देशमें तो भेड़िया धसान एक दिन बेटा मिला तो बोला-"मैं तो उनम है साहब, जहां एक घुसेगा, वहीं सब धुसेंगे।" तब उसकी परेशान हूँ पण्डितजी ! हमेशा रट बगाए रहते हैं यह देशभक्ति उमड़ पाती है-"तभी तो हमारे देशका यह मत करो, वह मत करो। माविर पापही बताइये कि मैं हाल है।" कोई भेद है कि गड़रियेकी तरह वे मुझे हाँका करें, वरना इसी 'ख' ने पहले स्टेशन पर 'क' के बारेमें मोचा मैं गड्ढे में गिर पगा ।" था-"अरे भाई, रब्बेमें जगह होगी बैंड जाऊँगा, नहीं कोई नई बात नहीं, सिवाय इसके कि दोनों कानं खदा रहूंगा । तुम्हारे सिर पर तो गिरूंगा नहीं, फिर तुम्हें है-बापको बेटेकी जवानी नहीं दीग्वती. तो बेटा पापकी मौतयों प्रारही है। 'क' की तरह'ख' मी काना ही है। बुजुर्गी नहीं देख पाता।

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