Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 477
________________ ४२४ । [किरण १२ मूल्य बराव प्रचारम खाया जाप चार अनंक मावनी- नहीं कि वे वैमा करनेके अधिकारी भीवा किमही द्वारा बांकावयम उनके परमेकी कचि पैदा की जाय। तथा अपनी उस टीकामं काई नखनीय बास विशेषता (७) सधे हुए प्राव विद्वानों द्वारा अथवा अई पारम्बी ला मकं हैं या कि नहीं और उनके बुदके अपर समयसारविद्वानोंकी देख-रेन्बम ऐम नये माहित्यका निर्माण कराया का कितना असर है। ____हालमें मी दो एक टीकायाको दखनेका मुम जाय जी जैन माहिन्यक प्रति लोकचिका जागून कर, आवमा मिला है। परन्तु उनमें कुछ वाक्योको इधर-उधरस विद्वानांकी उपपसिषु (ममाधानाप्टि) को बोले, उता ज्योका न्यो उठाकर या कुछ नार-मराधकर रख देने और रताका वातावरण उत्पन्न कर चार बोकमें कबी हुई पि पंषण तथा यों ही बढा चढाकर कहनके सिवा कोई नत्यानि-विषयक भूल-भान्नियाको दूर करने में समर्थ हो । बाम मान प्रायः दम्बनको नहीं मिली। मन गाथानांक एमं माहित्यका मवत्र सुखभ करके और भी अधिककनाक पद-वाक्योकी गहराई में स्थित अर्थको स्पष्ट करने अथवा माथ प्रचारमं लाया जाय । ऐमा साहित्य निर्माण कराने के उनके गुप्त रहग्यको विवंचन-द्वारा प्रकट करनेकी उनमें लिये कुन म पुरस्कारांकी भी योजना करनी होगी, कोई खाम चेष्टा नहीं पाई गई। घुमी नगण्य टीकार्य नभी यथेष्ट मफलता मिल मकेगी। प्रायः लोकपणा यशवनी होकर लिम्बी जाती है। जो (अनकानको मभीक पहन योग्य जैन समाजका मज्जन लो.पणा वशवनी नहीं हैं और जिनपर ममयमारएक आदर्शपत्र बनाया जाय और प्रचारकाद्वारा यथा का धांडा बहुत रंग चढ़ा हुआ है वो पहले अपने माध्य एसा यत्न किया जाय कि कोई भी नगर-प्राम, जहां अध्ययन अनुभव और मननके बलपर लिखी गई टीकाम एक भी घरजनका हो, उसकी पहचस बाहर नहमक अपना विशेष कनृख नहीं समझते और आज भी, जबकि वह सबकी मेवाम बराबर पहुंचा करे । उम टीकामं संशोधन नथा परिमार्जनादिका काफी अबसर इन सब कार्योक मम्पक होनेपर साहित्यिक काच मिल चुका है, अनेक मन प्ररणाांक रहते हुए भी उमं प्रबल वेगस जागृत ही डंउंगी और तब समाज महज की प्रकाशित करनेम हिचकचाते है। माना वे अभी भी अपनी उमतिक पथपर अग्रसर होने लगेगा। मनः पूरी शकि उस टीकाको टीकापदके योग्य न समझने हो। ऐम सजना लगाकर इन कार्योंकी शीघ्र ही पूरा करना चाहिय-भले में वर्णीश्री गणेशप्रसादजीका नाम उल्लवनीय है। ही दूसरे कामांकां कुछ समय के लिये गौण करना पड़े। यद्यपि मैं उनकी इम प्रवृत्तिम पर्णतः महमन नहीं हूँ४.समयमारका अध्ययन और प्रवचन- वअपने प्रवचनां धादिक द्वारा जब इमरीको चपन अनुभवी माजकल जैन समाजममममाका प्रचार बह रहा का लाभ पहुंचात है तब अपनी उमटीद्वारा उन्हें जिस देखो वही पनयमारकी म्बा याय करना नया स्थायी लाभ क्यों न पहुंचाए ! फिर भी उनकी उपस्थितिम उमक प्रवचनाका सुनना चाहना है । बाझ रष्ठिम बात जब उनके चले अपनी समयमारी टीकाणे प्रकाशित करन अच्छी है-धुरी नही. परन्तु नंम्बना यह है कि समयमार- उद्यत हो जाएं तब उनका अपनी कृनिक प्रान यह निर्ममन्त्र का अध्ययन कितनी गहराई माथ हो रहा है और उसके उल्लंग्वनीय जन्म हो जाना है। प्रबचनामे क्या कुछ विशेषना रहती है। भावुकतामे बह जाना निःमन्देह ममयसार-जैसा ग्रंथ बहुन गहरे अध्ययन नथा मराको बहा दना और बान है और किमा विषयक तथा मननकी अपेक्षा रखता है और सभी प्राम-विकामठीक मर्मको समममा समझाना इमरी बात है। कितने ही जैसे यष्ट फलको फल मकना है। हर एकका वह विषय विद्वान तो थोदामा अध्ययन करते ही अपनेको प्रवचनका नहीं है। गहरे अध्ययन तथा मननक प्रभाव कोरी भाबुअधिकारी समझने लगन है और लच्छदार भाषणांका कताम बहने वालांकी गति बहुधा 'न इधरके रहे। उधर भारकर बांकका अनुरंजन करनेमे प्रवृत्तही जाते है, जिनमें- रहे बाली कहावतको चरितार्थ करती है अथवा वे उस बहुतांकी गति "वागुचारांम्पचं मात्र नबियाः कर्तुम- एकान्तकी भार उल जाते है जिस आध्यात्मिक एकान्त पमा" जैसी होनी है। इसना ही नहीं, बल्कि वे इस ग्रन्थ- कहते है और जो मिध्यान्सम परिगशित किया गया है। पर टीका-टिप्पजनक लिखकर उसे प्रकाशित करते-करान इस विषयकी विशेष चर्चाको फिर किसी समय उपस्थित हुए भी बनेमे बात है। उन्हें इस बातको कोई चिना किया जायगा ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484