Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 454
________________ किरण १२] कारिकामें दिये हुए जन्म-जरा-रोग और मरणके दुःखोंसे, इष्ट वियोगादि जन्य शोकांसे और अपनेको तथा अपने परिवारादिको हानि पहुँचनेके भयोंसे परिमुक्त नहीं होता; जब कि निःश्रेयस सुम्बके स्वामीके इन सब दुःखोंकी कोई सम्भावना ही नहीं रहती और वह पूर्णतः सर्व प्रकारके दुःखोंसे अनालीढ एवं अस्पृष्ट होता है। ये दोनों फल परिणामों की गति अथवा प्रस्तुत रागादिपरिणतिकी विशिष्टताके आश्रित हैं । समन्तभद्र- वचनामृत प्रस्तुत कारिकामें दोनों सुख- समुद्रोंके जो दो अलग अलग विशेषण क्रमशः ‘निस्तीर' और 'दुस्तर' दिये हैं वे अपना खास महत्व रखते हैं। जो निस्तीर हैं उस निःश्रेयस सुख-समुद्र को तर कर पार जानेकी तो कोई भावना ही नहीं बनती - बह अपने में पूर्ण तथा अनन्त है । दूसरा प्रभ्युदय सुग्ब-समुद्र सतीर होने समीम हैं, उसके पार जाकर निःश्रेयस सुखको प्राप्त करनेकी भावना जरूर होती है परन्तु वह इतना दुस्तर है कि उसमें पड़कर अथवा विषय-भोगकी दलदल में फँसकर निकलना बहुत ही कठिन हो जाता है- विरले मनुष्य ही उसे पार कर पाते हैं। जन्म-जरा-ऽऽमय-मरणैः शोकैर्दु खैभेयेश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निनयसमिध्यते नित्यम् ॥ १३१ ॥ 'जो जन्म ( देहान्तर प्राप्ति ), जरा, रोग, मरण ( देहान्तर प्राप्ति के लिये वर्तमान देहका त्याग ), शोक, दुःख, भय और (चकार या उपलक्षणसे ) राग-द्वेष- काम क्रोधादिकसे रहित, सदा स्थिर रहने वाला शुद्धसुखस्वरूप निर्वाण है-सकल विभाव-भावके प्रभावको लिये हुए बाधारहित परम निराकुलतामय स्वाधीन सहजानन्दरूप मोक्ष है— उसे निःश्रेयम कहते हैं। विद्या- दर्शन - शक्ति - स्वास्थ्य प्रह्लाद तृप्ति शुद्धि - युज: । निरतिशया निरवधयो निःश्रेयसमावसन्ति सुखम्॥ १३२॥ [ ५०१ स्वरूपमें स्थिर रहनेवाले हैं, वे ( ऐसे सिद्ध जीव ) निः श्रेयस सुखों में पूर्णतया निवास करते हैं । 'जो विद्या- 'केवलज्ञान, दर्शन- केवल दर्शन, शक्ति अनन्तवीर्य - स्वास्थ्य – स्वात्मस्थितिरूप परमोदासीन्य ( उपेक्षा ), प्रह्लाद - अनन्तसुख, तृप्ति - विषयाऽ वाकांक्षा, और शुद्धि - द्रव्य-भाषादि कर्ममल रहितता, इन गुणोंसे युक्त है, साथही निरतिशय हैं विद्यादि गुबोंमें हीनाधिकताके भावसे रहित हैं, और निरवधि है-नियत कालकी मर्यादासे शून्य हुए सदा अपने व्याख्या - यहाँ निः श्रेयस सुखको प्राप्त होनेवाले सिद्धोंकी अवस्था विशेषका कुछ निर्देश किया गया है, जिसमें उनके निरतिशय और निरवधि होने की बात खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य है और वह इस रहस्यको सूचित करती है कि निः श्रेयस सुखको प्राप्त होने वाले सब सिद्ध विद्यागुणोंकी दृष्टिसे परस्पर समान हैं - उनमें हीनाधिक्या कोई भाव नहीं है- और वे सबही सदा अपने गुणोंमें स्थिर रहनेवाले हैं—उनके सिद्धत्व अथवा निंःश्रेयसत्वकी कोई सीमा नहीं है । काले कल्पशतेऽपिच गते शिवानां न बिक्रिया लक्ष्या । उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोक-संभ्रान्ति-करण-पटुः१३३ 'सैकड़ों कल्पकाल बीत जाने पर भी सिद्धों के विक्रिया नहीं देखी जाती उनका स्वरूप कभी भी विकार भाव अथवा वैभाषिक परिणतिको प्राप्त नहीं होता । यदि त्रिलोकका संम्रान्ति कारक - उसे एकदम उलट पलट कर देने वाला - कोई महान असाधारण उत्पात भी हो तब भी उनके विक्रियाका होना सभव नहीं है-वे बराबर अपने स्वरूप में सदा कालके लिये स्थिर रहते हैं ।" उपाख्या- यहां एक ऐसे महान् एवं असाधारण उत्पातकी कल्पनाकी गई है जिससे तीन लोककी सारी रचना उलट-पलट हो जाय और तीनों लोकोंको पहचाननेमें भारी भ्रम उत्पन्न होने लगे। साथ ही लिम्बा है कि सैकड़ों कoपकाल बीत जाने पर ही नहीं बल्कि यदि कोई ऐसा उत्पात भी उपस्थित हो तो उसके अवसर पर भी निःश्रेयस सुखको प्राप्त हुए सिद्धोंमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होगा - वे अपने स्वरूपमें ज्यांके स्यों अटल और अडोल बने रहेंगे। कारण इसका यही है कि उनके श्रम से विकृत होनेका कारण सदा के लिये समूल नष्ट हो जाता है। निःश्रेयसमधिपन्नास्त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं दधते । निष्किट्टिक. लिका चामीकर-मसुरात्मानः ॥ १३४ ॥ 'जो निःश्रेयसको निर्वाणको प्राप्त होते हैं वे कीट और कालिमासे रहित छवि वाले सुवर्णके समान

Loading...

Page Navigation
1 ... 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484