Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 457
________________ ४०४] भनेकान्त [किरण १५ अपने साथ हिसारसे दो पुरानी मूर्तियाँ भी लाये थे। का जीर्णोद्धार किया। और सं०१८६५ में जब भ. जिनमें एक प्रतिमा सप्तधातु की थी जिसमें चौबीस ललितकीति फतेहपुर आये, तब वहाँ की समाजने तीर्थकरों की मूर्तियाँ अंकित थी, और जो, सं०१०६६ उनका उचित समादर किया। जैनियोंका यह मन्दिर माघ सुदि ११ को मूलसंघी आचार्य पद्मनन्दि के उस समय पृथ्वीमें घुस गया था, अतः भट्टार जीधारा प्रतिष्ठित हुई थी। इसका चित्र अन्यत्र दिया हुश्रा के अनुरोधसे समाजने उसका जाणणद्धार करवा है। दूसरी मूर्ति चन्दप्रम भगवान की है, जो काले दिया और उसीके ऊपर एक नये विशाल मन्दिरका पाषाणपर उत्कीर्ण की हुई है, वह सं० १११३ में निर्माण भी करवा दिया। ये दोनों ही मन्दिर अब तक बैसाख सुदि ११ को प्रतिष्ठित हुई थी। इन दोनों बराबर बने हुए हैं। ऊपरका मन्दिर तय्यार हो जानेमूर्तियोंको ईश्वरदास नामके भोजक अपने साथ के कारण नीचेके मन्दिरकी सभी मतियाँ ऊपरकी लाये थे। वेदीमें विराजमान करदी गई, जबसे उनका वहीं पर इन दोनों मूर्तियों के कारण सेठजीने सं०१५०८ बराबर पूजन होने लगा। यह नया मन्दिर पहले में दिल्ली पटक मजिनचन्द्रजीके पदेशसे दिगदर दियो पटक भ० जिनचन्द्रजीक उपदेशस दिगम्दर मन्दिरसे दूने सु• स्थान पर संगमरमरके पत्थरका बना जैन मन्दिरका शिलान्यास फाल्गुन सुदि २ को किया, हा है, उसमें अन्दर सुवर्णका कामभी किया गया और मन्दिर तय्यार होने पर उक्त मूर्तियाँ बड़े भारी है। अनेक संस्कृत पद्य भी सुवणोक्षरोंमें अंकित महोत्सबके साथ विराजमान कर दी। किये गए हैं, जिनसे मन्दिरकी शोभा दुगुणित सं०१७७० में चौधरी रूपचन्दजीने उक्त दिल्ली हो गई है। मन्दिरमें दो शिलालेख और अनेक पट्टके भट्टारक श्रीदेवेन्द्र कीर्तिकी आज्ञासे मन्दिर- प्राचीन यन्त्र हैं जिनसे इतिहास-विषयक कुछ सामग्री ..ईश्वरदास शाकद्वीपीय माय थे। इनका घंश प्राप्त हो जाती है। यन्त्रों में सबसे पुराना यन्त्र भोजक कहलाता है। इनके वंशज फतेहपुरमें अबभी मौजूद सम्पग्दर्शनका है, जो सं० १५४३में मगसिर वदी हैं। जैन मन्दिरमें भजनादि करनेके कारण जैनियोंके साथ १ गुरुवारके दिन उत्कीर्ण किया गया है। दूसरा इनका प्रेम सम्बंध चला जाता है। जैनमन्दिरामें यह सेवा यन्त्र सोलह कारणका है जो सं० १५४९में उत्कीर्ण कार्य करते हैं। अब यह परम्परा नहींके बराबर है। कराया था। तीसरा यन्त्र स० १५७३का है और २ यह भट्टारक जिनचन्द वे ही हैं जो भट्टारक पद्म- चौथा सं. १५७६ का। नन्दिके प्रशिष्य और भ. शुभचन्दके पट्टधर थे। यह मूल- भ० ललित कीतिके प्रशिष्य और पांडे रूपचन्दजी संघस्थित नन्दीसंघ, बलात्कारगण और सास्वतिगच्छके के शिष्य पं. जीवनराम थे, जिनके हाथका लिखा हुधा विद्वान थे और दिल्ली पट्टके पट्टधर थे। यह बड़े प्रभावी एक गुटका वहां सुरक्षित है, जो एक लाख श्लोक थे। संवत १५०० में पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए थे, सं० १९४८ प्रमाण बतलाया जाता है! उस गुटके को देखनेसे में इन्होंने जीवराज पापड़ीवाल के सहयोगसे सहस्त्रों इस बातका पता चल सकेगा कि उसमें किन किन प्रथों मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा कराई थी। इनके अनेक विद्वान शिष्य का संग्रह एवं संकलन किया गया है, और वे कितने थे। भ. रस्नकीर्ति और पं. मेधावी उनमें प्रधान थे, पुराने एवं महत्व के हैं। उन्होंने अपनी मृत्यूसे पहले जिन्होंने 'धर्मसंग्रह श्रावकाचारकी रचना हिसारमें प्रारम्भ अपनी एक छतरीभी बनवाईथी जो अबभी मौजूद है। करके सं० १९४१ में कुतुबखानके राज्यकालमें समाप्त इनके पश्चात् अन्य लोग पट्ट पर बैठे पर बाद में वह चला किया था। इनके दो शिष्य और भी थे, ब्रह्म नरसिंह नहीं। उक्त सेठ तोहनमन्लजीके माता पिता भी हिसारसे और पक्ष तिहुमा । ब्रह्म तिहुणाने सं० १५१८ में बादमें आकर फतेहपुर ही रहने लगे थे। वर्तमानमें पं० मेधावीके उपदेशसे पंचसंग्रह और जंबुद्धीपप्रज्ञप्ति फतेहपुर और आस-पासके गांवों में जो भी अग्रवाल खिखाकर उन्हींको प्रदान किया था इनका बनाया हुमा जैनी हैं वे सब इन्ही सेठजीके वंशजकहे जाते हैं। एक चतुर्विशति जिन स्तोत्र भी है। जो 'अनेकान्त' वर्ष हिसारके एक सेठ हेमराजका उल्लेख भ. यशः कीर्तिने अपने पाण्डव पुराण' में किया है, जिसमें वे

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