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समन्तभद्र-वचनामृत
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दिग्ववमनदाटतं च भोगोपभोगपरिमाणम् । पापकी ही नहीं बल्कि सूक्ष्म पापकी मी निवृत्ति । मनसा यनिताया और यह तभी हो सकती है जब उस मर्यादा-बाह्य
क्षेत्रमें मनसे वचनसे तथा कायसे गमन नहीं किया ___'आर्यजन-तीर्थकर-गणधरादिक उत्तमपुरुष- जायगा। और इसलिये संकल्प अथवा प्रतिज्ञामें स्थित दिग्नत, अनथदण्डनत और भोगोपभोगपरिमाण (ब्रत) 'बहिर्न यास्यामि' वाक्य शरीरकी दृष्टि से ही बाहर न को 'गुणवत क्योंकि ये गुणोंका अनुहण जाने का नहीं बल्कि वचन और मनके द्वारा भी बाहर करते हैं-पूर्वोक्त आठ मूलगुणोंकी वृद्धि करते हुए न जानेका सूचक है, तभी सूक्ष्म-पापको विनिवृत्ति बन उनमें उत्कर्षता लाते हैं।
सकती है। ___ व्याख्या-यहां 'गुणवतानि' पदमें प्रयुक्त हुआ मकराकर-सरिदटवी-गिरि-जनपद-योजनानिमर्यादा 'गुण' शब्द गुणोंका (शक्तिके अंशोंका) और गौणका प्राहुर्दिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥६॥ वाचक नहीं है, बल्कि गुणकार अथवा वृद्धिका वाचक 'दशों दिशाओंके प्रतिसंहारमें-उनके मर्यादीहै, इसी बातको हेतुरूपमें प्रयुक्त हुए 'अनुहनात्' - पदके द्वारा सूचित किया गया है।
" करणरूप दिग्व्रतके ग्रहण करनेमें प्रसिद्ध समुद्र, नदी,
अटवी (वन), पर्वत, देश-नगर और योजनोंकी गणना दिग्वलयं परिगणितं कृत्वा तोऽहं बहिर्न यास्यामि। ये मर्यादाएं कही जाती हैं। अथात् दिग्वतका सङ्कल्प इति संकल्पोदिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्यै ॥६॥ करते-कराते समय उसमें इन अथवा इन जैसी दूसरी
दिग्विलयको-दशों दिशाओंको-मर्यादित करके लोकप्रसिद्ध मर्यादाओंमेंसे किसी न किसीका स्पष्ट जो सूक्ष्म पापकी निवृत्तिके अर्थ मरण पर्यत के लिये यह उल्लेख रहना चाहिये। संकल्प करना है कि 'मैं दिशाओंकी इस मर्यादासे अवघेवहिरणुपाप-प्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयताम् । बाहर नहीं जाऊँगा' उसको दिशाओंसे विरविरूप पंचमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥७०॥ 'दिग्नत' कहते है।
'दिशाओंके व्रतोंको धारण करने वालोंके अणुव्रत, व्याख्या-जिस दिग्वलयको मर्यादित करनेकी मर्यादाके बाहिर सूक्ष्म पापोंकी निवृत्ति हो जानेके बात यहां कही गई है वह पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर कारण, पंच महाव्रतोंकी परिणतिको उतने अंशोंमें ऐसे चार दिशामों तथा अग्नि, नैऋत,वायव्य, ईशान महावतों जैसी अवस्थाको प्राप्त होते हैं । ऐसे चार विदिशाओं और ऊर्ध्व दिशा एवं अधोदिशा
व्याख्या-जब दिखतोंका धारण-पालन करने को मिलाकर दश दिशाओंके रूपमें है, जिनकी मर्या
पर अणुव्रत महाव्रतोंकी परिणतिको प्राप्त होते हैं तब दामोंका कुछ सूचन अगलो कारिकामें किया गया है। दिखत गणव्रत हैं। यह बात सहजमें ही सष्ट हो जाती यहां पर इतना और बान लेना चाहिये कि यह मर्यादी
है और इसका एक मात्राधार मर्यादित क्षेत्रके बाहर करण किसी अल्पकालकी मयोदा के लिये नहीं होता,
इम पापसे भी विरक्तिका होना है। बल्कि यावजीवन प्रथमा मरणपर्यन्त के लिये होता है, इसीसे कारिकामें 'मामति' पदका प्रयोग कि प्रत्याऽख्यान-तनुत्वान्मन्दतराश्चरणमोह-परिणामा है। और इसका उद्देश्य है भवधिके बाहर स्थित सत्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते ॥७॥ क्षेत्रके सम्बन्ध भणुपापकी विनिवृत्ति अर्थात् स्थूल 'प्रत्याख्यानके कृश होनेसे-प्रत्याख्यानावरणरूप