Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 388
________________ किरण १० ] पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्य: प्रोषधोपवासस्तु । चतुरम्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदिच्छाभिः ।। १०६ 'चतुर्दशी और अष्टमी के दिन चार अभ्यवहार्यो का, पान (पेय), खाद्य और लेझरूपसे चार प्रकारके आहारोंका जो सत इच्छाओंसे - शुभसंकल्पोंके साथ त्याग है--उनका सेवन न करना है— उसको 'प्रोषधोपवास' व्रत जानना चाहिये । समन्तभद्र वचनामृत व्याख्या- 'पर्वणी' शब्द यद्यपि आमतौर पर पूर्णिमा का वाचक है परन्तु वह यहाँ चतुर्दशीके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है; क्योंकि जैनाम्नायकी दृष्टिसे प्रत्येक मासमें दो अष्टमी और दो चतुर्दशी ऐसे चार दिन आमतौर पर पर्वके माने जाते हैं, जैसाकि श्रागे प्रोषधोपवास नामक श्रावकपद (प्रतिमा) के लक्षण में प्रयुक्त हुए 'पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि मासे मासे' इन पदोंसे भी जाना जाता है । पर्वणीको पूर्णिमा माननेपर पर्व दिन तीन ही रह जाते हैं-दो अष्टमी और एक पूर्णिमा। यहां पर्वणी शब्दसे अष्टमीकी तरह दोनों पक्षोंकी दो चतुर्दशी निर्वाचित हैं। प्रभाचन्द्राचार्यने भी अपनी टीकामें ‘पर्वणि' पदका अर्थ 'चतुदश्यां' दिया है । 'चतुरव्यवहार्याणां' पदका जो अर्थ अन्न, पान, खाद्य, और लेह्य किया गया है वह छठे श्रावकपदके लक्षण में प्रयुक्त हुए, पानं खाद्य लेा नाश्रनार्ति यो विभावर्याम्' इस वाक्य पर आधार रखता है । यहां इस व्रत के लक्षण में एक बात खास तौरसे ध्यानमें रखने योग्य है और वह है 'सदिच्छामि' पदका प्रयोग, जो इस बातको सूचित करता है कि यह उपवास शुभेच्छाओं अथवा सत्संकल्पोंको लेकर किया जाना चाहियेकिसी बुरी भावना, लोकदिखावा अथवा दम्भादिकके असदुद्देश्यको लेकर नहीं, जिसमें किसी पर अनुचित दबाव डालना भी शामिल है। पंचानां पपानामलंक्रियाऽऽरम्भ- गन्ध- पुष्पाणाम् । स्नानाऽञ्जन- नस्यानामुपवासे परिहतिं कुर्यात् ॥ १०७ [ ३४३ नाक में दवाई डालकर नस्य लेने अथवा सूँघनेका त्याग करना चाहिये ।' 'उपवास के दिन हिंसादिक पांच पापोंका, अलंक्रियाका - वस्त्रालंकारोंसे शरीर की सजावटका कृष्यादि मारम्भोंका, चन्दन इत्र फुलेल आदि गन्ध द्रव्यों के लेपनादिका, पुष्पोंके (सूँघने धारणादिरूप) सेवनका, स्नानका, आँखोंमें अञ्जन श्रजनेका और व्याख्या - इस कारिकामें उपवासके दिन अथवा समयमें 'क्या नहीं करना' और अगली कारिकामें 'क्या करना' चाहिये इन दोनोंके द्वारा उपवासकी दृष्टि तथा उसकी चर्याको स्पष्ट किया गया है और उनसे यह साफ़ प्रस्तुत उपवास धार्मिकदृष्टिको लिए हुए है । इसीसे इस कारिकामें पच पापोंके त्यागका प्रमुख उल्लेख है, उसे पहला स्थान दिया गया है और अगली कारिकामें धर्मामृतको बड़ी उत्सुकताके साथ पीने-पिलानेकी बातको प्रधानता दी गई है। और इसलिये जो उपवास इस दृष्टिसे न किये जाकर किसी दूसरी लौकिक दृष्टिको लेकर किए जाते हैं— जैसे स्वास्थ्यके लिये लंघनादिक थवा अपनी बातको किसी दूसरेसे मनवानेके लिये सत्याग्रहके रूपमें प्रचलित अनशनादिक वे इस उपवासकी कोटिमें नहीं आते। धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान् ज्ञान-ध्यानपरो वा भवतूपवसमतन्द्रालुः ॥ १०८ 'उपवास करनेवाले को चाहिए कि वह उपवासके दिन निद्रा तथा आलस्यसे रहित हुआ अति उत्कण्ठाके साथ----मात्र दूसरोंके अनुरोधवश नहीं-याँ दूतको - जो धर्मके स्वरूप से अनभिज्ञ हैं या धर्मकी ठीक जानकारी नहीं रखते उन्हें-- धर्मामृत पिलावे -- धर्मचर्चा या शास्त्र सुनावे तथा ज्ञान और ध्यान में तत्पर हांवे --शास्त्रस्वाध्यायद्वारा ज्ञानार्जनमें मनको समावे अथवा द्वादशानुपाके चिन्तनमें उपयोगको रमावे और धर्मध्यान नामके अभ्यन्तर तपश्चरलमें लीन रहे ।' ग्रहण-विसर्गाऽऽस्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादराऽस्मरणे यत्प्रोषधोपवास- व्यतिलंघन - पंचकं तदिदम् । ११० ' (उपवासके दिन भूख-प्यास से पीड़ित होकर शीघ्रतादिबस) जीव-जन्तुकी देख-भाल किये बिना और विना योग्य रीतिसे माड़े पोंछे जो किसी चीजका प्रहण करना--उठाना पकड़ना है, छोड़ना-धरना है, आसनबिछौना करना है तथा उपवास सम्बन्धी क्रियाओंके अनुष्ठान में अनादर करना है और एकाप्रताका न होना अथवा उपवासविधिको ठीक याद न रखना है. यह

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