Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 425
________________ सूतक-पातक-विचार ( लेखक - रतनचन्द जैन मुख्तार सहारनपुर ) तीन या चार माह हुए जैन मित्रमें पं० लक्ष्मीचन्द स्वोपज्ञटीका-भंवति । किं तत् ? अनादि किं विशिष्टम् ? दायक विशारद कैराना निवासीकी, और ४ दिसम्बर सन् १९५२ के दोषभाक् । दायकाश्रयं दोषं भजस्या- श्रयति यत्तदेवम् । जैन- संदेशमें सेठ माणिकचन्द्र अजमेर निवासीकी सूतक व किं विशिष्ट सत् ? दत्तम् । कया ? मलिनी गर्भिणी लिङ्गिपातकके विषय में शङ्का प्रकाशित हुई थी । मैं भी इस म्यादिनार्या । न केवलं, नरेण च किं विशिष्टेन ? शवादिना । विषयमें कुछ निश्चय नहीं कर सका तथापि जो प्रमाण न केवलं क्लीवेनापि नपुंसकेन । मलिनी रजस्वला । गर्भिणी reat मिले हैं उनको मैं इस लेखमें दे रहा हूँ जिससे गुरुभारा। शव मृतकं श्मशाने प्रक्षिप्यागतो मृतक इस विषय पर विशेष ऊहापोह हो सके । मृतक युक्तो वा । आदि शब्दाद्वयाधितादिः ॥ ३४ ॥ सूदी सूंडी रांगी मदय पुंसय पिमायणग्गोय | उच्चार पडिवदत रुहिर-वेसी समणी अंगमम्वीया ॥ ४६ ॥ - मूलाचार पिंडशुद्धयधिकार ६ श्री वसुनंदिश्रमविरचितया टीका—सूतिः या चालं प्रमाधयति । सूंडी-मद्यपान लम्पटः । रोगी-व्याधिप्रस्तः । मदय-मृतकं श्मशाने-परिक्षिप्यागतो यःस मृतक इत्युच्यते । मृतक सूतकेन यो सोऽपि मृतक जुष्टा इत्युच्यते । नपुं सब-न स्त्री न पुमान नपुंसकमिति जानीहि । पिशाचो वाताथ पहतः । नग्न; - पटाद्यावरण रहितो गृहस्थः । उच्चारं - मूत्रादीन् कृत्वा य भागतः । म उच्चार इत्युच्यते पतितो मूर्खों गतः । वान्तश्छर्दि कृत्वा य श्रागतः । रुधिरं रुधिर सहितः । वेश्या दामी । श्रमणिकाऽऽर्यिका श्रथवा पंच भ्रमणिका रक्त पटिकादयः । अंगम्रक्षिका अंगाभ्यंगकारिणी ॥ ४६ ॥ ववहार सोहणाए परमट्टाए तहा परिहरउ । दुविधा चावि दुगंधा लोइय लोगुत्तरा चैव ॥ ५५ ॥ — मूलाचार समयसाराधिकारः १० टीका-जुगुप्सा गर्हा द्विविधा द्वि प्रकारा लौकिकी लोकोत्तरा छ । लोकव्यवहार सौधनार्थ सुतकादि - निवारणाय लौकिकी जुगुप्सा परिहरणीया तथा परमार्थाय रत्नत्रय शुद्ध लोकोत्तराच कार्येति ॥ २२ ॥ मलिनी गर्भिणीलिङ्गिन्यादिनार्या नरेण च । शवादिनपि क्लीवेन दत्तं दायक दोषभाक् ॥३४॥ पं० प्राशावर विरचितं अनगार धर्मामृते पञ्चमोऽध्याय इन उपर्युक्त श्लोकोंका सारांश यह है कि जो मनुष्य मृतकको श्मशान भूमिमें छोड़कर श्राया है अथवा जिम्मको मृतक सूतक है, लोक व्यवहार शुद्धिके कारण मुनि उसके हाथसे दान नहीं लेते। इससे यह तो विदित हो ही जाता है। कि सूतकके कारण मनुष्य में अपवित्रता श्राती है जिसके कारण वह मुनियोंको आहारदान देनेका अधिकारी नहीं रहता । यहां पर जनमके समय भी सूतक होता है या नहीं इसका तो कथन ही नहीं है । मरण सूनकके विषय में भी यह प्रश्न होते हैं कि किसके मरण सूतक होता है और सूतकसम्बन्धि पवित्रता कितने समय तक रहती है और उस अपवित्रताके कालमें कौन कौन लौकिक व धार्मिक कार्य नहीं करने चाहिये । इन विषयोंका विशद वर्णन श्रावकाचारोंमें होना चाहिये था; क्योंकि गृहस्थिके षट् आवश्यकमें एक आवश्यक दान भी है परन्तु श्रावकाचार इस विषय में मौन है। स्वयं पं० श्राशाधरजीने सागारधर्मामृत और उसकी टीका रवी परन्तु उसमें सूतक के विषयमें एक शब्द भी नहीं लिखा । यह बात विचारणीय है कि श्रावकाचारोंमें मृतकके विषय में क्यों कथन नहीं किया गया । प्रायश्चित ग्रन्थोंमें कुछ विशेष कथन है जो इम प्रकार है रवितिय-भ-वसा सुद्दा विय सूत गम्मि जायम्मि । पण दस वारसपण्णरसेहि दिवसेहिं सुकंति ॥३५२ ॥ छाया - क्षत्रिय माह्मण- वैश्याः शूद्रा अपि च सूतकं जाते ।

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