Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 426
________________ किरण ११] सूतक-पातक-विचार [३७७ भवन्ति । पंचदिन-दिवसः। शुद्ध दिवस पंचदश द्वादश पंचदशभिः दिवस शुद्धचति ॥३५२॥ ब्राह्मण-पत्रिय-विट्-छूद्रा दिनः शुद्धयन्ति पंचभिः । बालसण-सूरत्तण-जलणादिपवेस दिक्खंतेहिं । दश द्वादशभिः पचायथासंख्य प्रयोगतः ॥ १३ ॥ मणसण परदेसेसु य मुदाण खलु सूतगं णस्थि ॥३५॥ टीका-ब्राह्मण विप्रा, सत्रियः क्षत्रियाः, विडो वैश्याः छाया-बालस्वं शूरत्वं ज्वलनादि प्रवेश दीक्षितैः सनिः । शूद्रा-पाभोर कुंभकार तखकादयः। दिन-दिवसः। शुद्धचन्ति अनशन परदेशेषु च मृतानां खलु मूतकं नास्ति ॥३५३॥ सूत्रक रहिता भवन्ति । पंचभिः (दशभिः) ब्राह्मणा । पंचभिप्रायश्चित्तसंग्रहे छेदपिण्डम् (माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला) दिवसः सत्रियाः शुद्धयन्ति । द्वादशभिः दिवसः वैश्या लोइय सूरत्तविही जलाइपरवेस बाल-सण्णासे । शुद्धयन्ति । पक्षात-पंचदशमि दिवसः शूद्रासंशुद्ध चम्ति मरिदे खणेण सोही बदसहिदे चेव सागारे ॥८६॥ यथासंस्यप्रयोगतः-यथाक्रमयुक्तया ॥१५॥ प्रायश्चित छाया-लौकिक शूरत्व विधिना जलादि प्रवेश बालसंन्यासेन। चूलिका । मृते पणे न शुद्धि व्रतसहिते चैव सागारे ॥८६ ॥ इन श्लोकोंसे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि मरणका अस्य अर्थः-लौकिक शौर्येण मृते, पानीये नावादि प्रविष्टेन सूतक पत्रिको ५ दिन, ब्रह्मणको १० दिन वैश्यको १२ मृते, प्रवासन मृते, बालमरणेन मृते, संन्यासेन मृने, व्रत दिन और शूद्र को १५ दिनका होता है किन्तु जल या सहिते श्रावके मृते सूतक नेति ॥८६॥ अग्निमें मरनेसे या पहाइसे गिरकर मरनेसे, प्रवास या पण-दस-बारस णियमा परणरम पहि तत्थ दिवसेहिं । परदेश में मरनेसे, संन्यास सहित मरणसे स्वजनके मरनेका खत्तिय-बंभण-वाइसा सहाइ कमेण सुज्झति ॥७॥ सूतक नहीं लगता। परिजन अर्थात् परिवारके मरणका पंचभिःदशभिः द्वादशभिः नियमात पंचदशभिःतन्त्र दिवसः। सूतक ता उपयु क श्लाकाम नहीं कहा ह । अब प्रश्न यह शत्रिय-ब्राह्मण-वैश्याः शूद्रा च क्रगेण शुद्धयन्ति ॥७॥ होता है कि स्वजन शब्दमे किस किसका ग्रहण किया जावे। जन्मके सूतकका यहां पर भी कथन नहीं किया और नहीं प्रायश्चित्त संग्रहे छेदशास्त्रम् यह कथन किया कि सूतककी अशुद्धि के कालमें मनुष्य जलाऽनलप्रवेशेन मृगुपाताच्छिशावपि । किस किस धार्मिक और लौकिक क्रियानासे वंचित बालसंन्यासतः प्रेते सद्यः शौचं गृहिबते ॥१५॥ रहता है। टीका-जलानलप्रवेशेन ज्वलनप्रवेशेन पानीय प्रवेशं विधाय। भिन्न भिन्न नगरोंमें, मूतकके विषयमें, पृथक पृथक प्रेते सति अनल प्रवेशेन अग्नि प्रवेशेन च प्रेते भृगु रूढी हैं। पातात्-पतनात हेतुभूतात् । शिशावपि-बाले च प्रेते । बाल संन्यासतः-बाल संन्यासात् मिथ्यादृष्टि संन्यासेन च कृत्वा यदि इस विषयमें कोई एक निर्णय हो जाये तो सूतक प्रते-स्वजने मृते । सद्यः झटिति । शौचं-शुद्धिर्भवति-सूतकं रूढी न रहकर श्रावकधर्ममें गर्भित हो जावे। पाशा है नास्ति । गृहिवते श्रावके च एतस्मिन् मति तत्क्षणादेव कि विद्वान इस विषय पर सप्रमाण विशेष विचारनेकी शुद्धिर्भवति ॥ ११२॥ कृपा करेंगे।

Loading...

Page Navigation
1 ... 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484