Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 440
________________ किरा ११] बढ़ा काम शामिल है प्रूफको बड़े सावधानीके साथ प्रायः तीन-तीन बार देखकर ठीक किया जाता है. तभी शुद्ध पाई बन सकती है। इस दृष्टिको सदा ध्यान में रखते हुए 'अनेकान्त' मासिक तथा ग्रन्थोंका प्रकाशन-कार्य किया गया है और प्रकाशनके लिये अच्छे लेखक साथ बहु-उपयोगी । एवं महत्वके ग्रन्थोंको चुना गया है। जिन ग्रन्थोंका प्रका शन संस्थासे हुआ है उनकी एक सूची, संचित परिचयके साथ नीचे दी जाती है। इनके अलावा 'जैनमन्थ-प्रशस्तिसंग्रह' नामक ग्रन्थ अभी प्र'समें चल रहा है और उसके करीब २०० पेज छप चुके हैं। " वीर सेवामन्दिरका संपिप्त परिचय L२५१ ' रखता आया है । संस्थाको कितनीही आर्थिक सहायता आपके निमित्तले तथा श्रापकी प्ररखाओंको पाकर प्राप्त हुई है। आप सच्चे सक्रिय सहयोगी है और संस्थाके विषय में आपके बड़े ही ॐ चे विचार हैं। हालमें आपने और आपके घंटे भाई बा. नंदलालजी ने अपनी स्वर्गीया माताजीकी प्रोरसे वीरसेवामन्दिर को ४० हजारमें एक ज़मीन दरियामंत्र देहलीमें अन्सारी रोड पर खरीद करवा दी है, जिस पर बिल्डिंग बननेके लिये समाजका सहयोग खास तौर से बांहनीय है। ये तीनों महानुभाव 'बीरसेवामन्दिर-प्रन्थमाला' के संरक्षक हैं, जिसके संरक्षक प्रायः वे ही होते हैं जो पांच हज़ार या इससे ऊपरकी सहयता उसे करते प्रदान हैं। इससे कमकी महायता प्रदान करने वाले सज्जन 'सहायक बेटियोंमें स्थान पाते है। ऐसे जिन सज्जनाने प्रन्थमाला प्रकाशित होने वाले किसी खास प्रत्यके लिये कोई सहायता प्रदान की है उनके नाम उस-उस ग्रन्थमें न्य बादके साथ प्रकाशित होते रहे है, वे संस्थाकी बड़ी रिपोर्टसे जाने जा सकेंगे । उसीसे दूसरे सहायकोंके नाम भी मालूम हो सकेंगे जिन्होंने संस्थाको अनेक रूपमें आर्थिक सहायता प्रदान की है। यहां मैं सिर्फ दो ऐसे सज्जनोंका नाम और उल्लेखित कर देना चाहता है जिन्होंने निस्वार्थभावसे संस्थामें रहकर उसे दूसरे ही प्रकारका सहयोग प्रदान किया है वे हैं स्व० हकीम उल्फतरायजी रुड़की और सुप्रसिद्ध समाजसेवी स्व० बा० सूरजभानजी वकील बाबू सूरजभान जी ने दो ढाई वर्ष तक लगातार साहित्यके निर्माणका कार्य ही नहीं किया बल्कि अपने अनुभवों से संस्थाके विद्वानोंको भारी लाभ पहुँचाया है। और हकीमजी ने बड़े ही प्रेमपूर्ण सेवाभावसे सबकी चिकित्सा ही नहीं की बल्कि एक जैनबन्धुके इकलौते पुत्रको, उसकी अनुपस्थितिमें, मृत्युके मुखमें से जाते-जाते बचाया है । वीरसेवामन्दिरके प्रकाशन यह सब वीरसेवामन्दिरके बाल्यकालके कार्यकलापका संचित परिचय है, जो समाजके सहयोगके अनुरूप ही संक्षिप्त नहीं बल्कि उससे कहीं अधिक है, क्योंकि संस्थापकने वष तक अल्पवेतनके विद्वानोंके साथमें स्वयं लगकर उनसे अधिक काम निकाला है और निजी रूप में सम्पादन-संशो धन, अनुसंधान, अनुवाद तथा निर्माणादिका जितना कार्य किया है यह कार्योंको देखने तथा उनके उक्त परिचयमे भी भली प्रकार जाना तथा अनुभवमें लाया जा सकता है । संस्थाकी व्यवस्थाके अलावा हिसाब लेखन, पत्रव्यवहार श्रीर प्रूफरीडिंगका भी कितना ही भारी काम उसे साथ में करना पड़ा है। संस्थाके खास सहयोगी इम अर्सेमें संस्थाको जिन सज्जनोंका सहयोग प्राप्त हुआ है उनमें कलकत्ता या छोटेलाल जी, बाबू नन्दलालजी और साहू शान्ति आइजी के नाम खास तौर से उ नीय है। साहूजीने इस हजारसे ऊपरकी सहायता प्रदान की है और एक ग्रन्थके लिये पांच हजारकी सहायताका बच्चन उनसे और भी प्राप्त है। बाबू नन्दलालजीने सोलह हजार से ऊपरकी सहायता प्रदानकी है और एक बड़ी सहायताका वचन उनके पास और भी धरोहर रूपमें है आप हर तरहसे संस्थाकी उन्नतिके इच्छुक हैं और उसे दूसरोंसे भी सहायता दिखाते रहते हैं। बालाजी से यद्यपि आर्थिक सहायता अभी तक आठ हजारसे कुछ ऊपर ही प्राप्त हुई है परन्तु प्राप संस्थाके प्रधान हैं माया है और आपका सबसे बड़ा हाथ इस संस्थाके संचालन रहा है। संस्थापक सदा ही आपके सत्यरामलोकी अपेक्षा 1 वीरसेवामन्दिरका प्रधान कार्यालय उसके जन्मकाल से ही सरसावा जि० सहारनपुरमें रहा है। यह दूसरी बात है कि कुछ समयके लिये उसका एक आफिस ग्रन्थोंके प्रकाशनार्थ देहलीमें भी रहा है । परन्तु गत दीपमालिकाके बादसे उसका प्रधान कार्यालय (हेड अफिस) स्थायी रूपमें देहलीमें कायम हो गया है और उसे एक जिन्दादिल युवक सज्जन झा० राजकृष्ण जी जैनका भी सहयोग प्राप्त हो गया है, जिन्होंने आफिसकी व्यवस्थाका सारा कार्यभार अपने ऊपर से दिया है और जो इस समय बड़े

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