Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 395
________________ ३५० ] सबही सुखतें अधिक सुख, है धातम आधीन । विषयातीत बाधा रहित, शुद्ध धरया शिव कीन ॥ शुद्धाचरण विभूति शिव अतुल अखण्ड प्रकाश । सदा उये नये करम लिये दरसन ज्ञान विलास ॥ बेसरी - जो परमातम शुद्धोपयोगी, विषय-कषायरहितउर जोगी करे म नऊतम पूरषभाने, सहज मोक्षको उद्यम ठानै ॥ इन्द्रिय निस्थंद पुण्य-सुख, सबै इन्द्रियाधीन । शुद्धाचरण अखण्ड रस, उद्यम रहित प्रवीन ॥ अपदेसो परमाणू पदे समेतोय सयमसहो जो ! द्धिो वा लुक्खो वा दु-पदे सादिन्त महवदि || ७२ ।। इस गाथामें परमाणुरूप द्रव्यसे स्कंध पर्याय कैसे बनती है ? इस सन्देहको दूर करते हुए लिखा है कि पुद्गलका सूक्ष्म अविभागीपरमाणु श्रप्रदेशी है— दो आदि प्रदेशोंसे रहित है । वह एक प्रदेशमात्र है और स्वयं अशब्द है— अनेक परमाणु रूप द्रव्यात्मक शब्द पर्यायसे रहित है अतएव वह परमाणु स्निग्ध और रूक्ष रूप परिणामवाला होनेके कारण दो प्रदेशोंको आदि लेकर अनेक प्रदेश रूप हो जाता है। इसी भावको निम्न पद्योंमें अंकित किया गया है:वेसविचंद-सूक्ष्मअविभागीपरमाणू, एकप्रदेश शब्दसुजाण । चिकणरूवि सहित गुणलहिये, पुद्गल अशुद्ध सो कहिये ॥ दोहा - चिक्कण सूक्ष्म संयोग, अणू मिलाप कराय । दोय आदि परदेश मिलि, होत बंध परयाय ॥ गुरमेगादी अस्स सिद्धन्तणं च लुक्नन्तं । परिणामादो भणिदं जाव तत्तमणुभर्वाद ॥७२॥ इस गाथामें परमाणुओं के स्निग्ध रूस गुणका उल्लेख करते हुए बतलाया है कि परमाणुके स्निग्ध रूक्ष गुणमें अनेक प्रकारकी परिणमन शक्ति होनेसे एकसे लेकर एकएककी वृद्धिको प्राप्त हुई स्निग्धता और चिक्कणता उनमें जब तक पाई जाती है जब तक वह अनन्त भेदोंको नहीं प्राप्त हो जाता है। इसी भावका संयोतक पथ निम्न प्रकार है: अनेकान्त [ किरण १० गिद्धा व लुक्खा वा अणुपरिणामासमा व विसमा था । समदो दुराधिगा जदि बझन्ति हि आदि परिहीणा ॥७३॥ एक अणु मधि पाइये चिकण रूक्ष स्वभाव | अंश एक सौं एक बढ़ि, aaa अनंत फलाव ॥ atsure परिणामकी, धरत अणू बढ़ि-चारि । एक अंशकों आदि दे, अंश अनंत विचारि ॥ इस गाथामें परमाणु किस तरहके स्निग्ध ( चिकने ) रूक्ष (रूखे) गुणोंसे बंध कर पिण्ड रूप हो जाते हैं, यह व्यक्त करते हुए लिखा है कि परमाणुके पर्याय मंत्र स्निग्ध व रूक्ष हों, किंतु वे दो चार-छह आदि अंशोंकी समानता अथवा तीन पाँच सात आदि अंशोंकी विषमता युक्त हों; परन्तु जघन्य अंशसे रहित गणनाकी समानताले दो अंश अधिक होने पर ही परस्परमें बंधको स्कंध रूप पिण्ड, पर्यायको-- प्राप्त होते हैं। अन्य रूपोंसे नहीं । निम्न पद्म इसी भावको व्यक्त करते हैं: रूक्ष तथा चिक्कण परमाणू, द्वै द्वै अंश बढत जहँ जांण । दो हो अंश अधिक गुण होई, अणू परस्पर बन्धत सोई ॥ विषय अवस्था भेदभनि, बन्ध दोय परकारि । एक अंशकी अधिकता, अणू अबन्ध विचारि ॥ विषमबंध-तीन पांच अरु सातलों, नव धारा इहिभांति । अधिक लग, विषमबंधकी मानि ॥ समबंध-दीय चार षट् अष्टदश यों अनन्त परकारि । द्वै द्वे अधिक मिलापसों, बंध समान विचारि ॥ अधिकता है है श्रंश बखानि । रूक्षरुचिकण परिणमन, अणूबंध परमानि ॥ राहूं होमि पेरसिंग मे परे सन्ति गाणमहमेको । इदि जो कार्याद झाणे सो अवाणं हवदि मादा । २-६६ इस गाथामें शुद्ध नयसे शुद्ध आत्माको लाभ बतलाया गया है और यह लिखा है कि मैं शरीरादि परद्रव्यों का नहीं हूँ। और न शरीरादिक परद्रव्य मेरे हैं। किन्तु मैं सकल विभावभावोंसे रहित एक ज्ञानस्वरूप ही हूँ । इस प्रकार भेद विज्ञानी जीव चित्तकी एकप्रता रूप ध्यानमें समस्त ममत्व भावोंसे रहित होता हुआ अपने चैतन्य माका ध्यान करता है। वही पुरुष श्रात्मध्यानी कहलाता है । इसी भावको निम्न पथमें अनूदित किया गया है:मैं न शरीर शरीर न मेरो, हों एकरूर चेतना केरो । जो यह ध्यान धारना बारे, भेदज्ञान बलकरि बिरखारै । सो परमातम ध्यानी कहिये, ताकी दशा ज्ञानमें लहिये । तजि अशुद्ध नव शुद्ध, प्रकाश, ता प्रसादतें मोहविनाशै ।

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