Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 387
________________ ३४२] अनेकान्त साथ ही बहस समझ लेना चाहिये कि सामाषिक केवल ध्यान करें--चिन्तन करें-कि 'में चतुर्गति भ्रमणरूपी जाप अपना नहीं है जैसा किबहुधा समर जाता है- जिस संसारमें बस रहा हूँ वह अशरण है-उसमें दोषोंमें अन्तर है और वह सामायिक तथा प्रतिक्रमम-पाठों अपायपरिरषक (विनाशसे रक्षा करने वाला कोई नहीं है, में पाए जाने वाले सामायिक ब्रतके इस बक्षणपयसे और (अशुभ-कारण-जन्य और अशुभ कार्यका कारण होनेसे) मी स्पट हो जाता है अशुभ है, अनित्य है, दुःखरूप है और आत्मस्वरूपसे "समता सर्वभूतेषु संपमा शुभ-भावना ।। भिन्न है, तथा मोक्ष उससे विपरीतस्वरूपवाला हैबात--अपरित्यास्तति सामाषिकं प्रतम् " वह शरणरूप, शुभरूप, नित्यरूप सुखस्वरूप और प्रात्मइसमें सामाविकात उसे बनाया गया है जिसके । र स्वरूप है। प्राचारमें सब प्राणियों पर समता-भाव हो-किसीके प्रति व्याख्या-यहां सामायिकमें स्थित होकर जिस प्रकारराग-पका वैषम्य न रहे- इन्द्रिय संयम तथा प्राणिसंयम के ध्यानकी बात कही गई है उससे यह और भी स्पष्ट हो के रूप में संयमका पूरा पालन हो, सदाशुभ भावनाएँ बनी जाता है कि सामायिक कोरा जाप जपना नहीं है । और रहें-अशुभ भावनाको जरा भी अवसर न मिले और इसलिये परहंतादिका नाम वा किसी मन्त्रकी जाप जपने में भार्स तथा रौद्र नामके दोनों खोटे ध्यानोंका परित्याग हो। ही सामायिक की इति-श्री मान लेना बहुत बड़ी भूल है, इस माचारको लिये हुए यदि जाप जपा जाता है और उसे जितना भी शीघ्र हो सके दूर करना चाहिये । विकसित भाल्मायोंकि स्मरशोंसे अपनेको विकासोन्मुख वाकायमानसानां दःप्रणिधानान्यनादराऽस्मरणे । बनाया जाता है तो वह भी सामायिकमें परिगणित है। सामयिकस्याऽतिगमा व्यज्यन्ते पश्च भावेन ॥१०५ शीतोष्ण-दंशमशकं परीषहमुपसर्गमपि च मौनधराः 'वचनका दुःप्रणिधान (दुष्ट असत् या अन्यथा प्रयोग समयिक प्रतिपमा प्राषिकुवीरन्नचलयोगा।॥१०३॥ अथवा पणिमन), काय का दुःप्रणिधान, मनका दुःप्रणि 'सामाश्किको छाप्त हुए-सामायिक मारकर स्थित धान, अनादर (अनुत्साह) और अस्मरण (अनकाप्रता), हुए-गृहस्थोंको चाहिए कि वे ( सामायिक कालमें) ये वस्तुतः अथवा परम वैसे सामायिकततके पांच सर्दी-गर्मी डांस-मच्छर मादिके रूपमें जो भी परीषह अतीचार है।' उपस्थित हो उसको, तथा जो उपसर्ग आए उसको भी व्याख्या-सामायिकवतका अनुष्ठान मन-वचनकायको अचलयोग होकर-अपने मन-वचन-कायको डांवाडोल ठीक वशमें रखकर बनी सावधानीके साथ उत्साह तथा न करके-मौनपूर्वक अपने अधिकारमें करें-सुशीसे एकाग्रतापूर्वक किया जाता है, फिर भी दैवयोगसे सहन करें, पीलाके होते हुए भी घबराहट-बेचैनी या क्रोधादि किसी कषायके भावा-वश यदि मन-वचन-कायमेंदीनतासूचक कोई शब्द मुखसे न निकालें। से किसीका भी खोटा अनुचित या अन्यथा प्रयोग बन व्याख्या-यह मौनपूर्वक सामायिकमें स्थित होकर जाय अथवा बैसा परिणामन हो जाय, उत्साह गिर जाय या सामायिक कालमें पाए हुए उपसर्गों तथा परीषहाँको समता- अपन विषयम एकाग्रता स्थिर न रह सकता वही इस भावसे सहन करते हुए जिस प्रचलयोग-साधनाका गृहस्थों- सके लिये दोषरूप हो जायगा। उदाहरणके तौर पर के लिये उपदेश है वह सब मुनियों-जैसी चर्या है और एक मनुष्य मौनसे सामायिकमें स्थित है, उसके सामने इसलिए प्रारम्भ तथा परिग्रहसे विरक ऐसे गृहस्थ साधकों एकदम कोई भयानक जन्तु सांप, बिच्छू व्याघ्रादि पाजाए को उस समय मुनि कहना-पेलोपसृष्ट मुनिकी उपमा और उसे देखतेही उसके मुंहसे कोई शब्द निकल पड़ेदेना उपयुक ही है। . शरीरके रोंगटे खड़े हो जाय, भासन डोल जाय, मनमें भयका संचार होने लगे और उस जन्तुके प्रतिद्वेषकी कुछ प्रशरामशुभमनित्यं दुःखमनात्मानमावसामि भवम् भावना जागृत हो उठे अथवा अनिष्टसंयोगज नामका भातमोबस्तद्विपरीतात्मेति घ्यायन्तु सामयिके ।१०४ ध्यान कुछ पणके लिये अपना पासन जमा बैठे तो यह 'सामायिक में स्थित सभी भाषक इस प्रकारका सब उस प्रतीके लिये दोषरूप होगा ।

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