Book Title: Anekant 1952 Book 11 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 348
________________ किरण ६] सम्बन्ध न रखकर यदि किसी दूसरी ही सद्दष्टिको लिये हुए हो तो वह चिन्तन अध्यानको कोटिसे निकल जाता है । अपध्यानके लिये द्वेषभाव तथा अशुभरागमें से किसीका भी होना आवश्यक है। आरम्भ-संग-साहस- मिध्यात्व- द्वेष-राग-मद-मदनैः। चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति ॥ ७६ ॥ 'समन्तभद्र वचनामृत '(व्यर्थत्रे) आरम्भ (कृष्यादिसावद्य कर्म) परिग्रह, ( धन-धान्यादि-स्पृहा ), साहस ( शक्ति तथा नीतिका विचार न करके एक दम किये जाने वाले भारी असत्कर्म), मिथ्यात्व (एकान्तादिरूप श्रतस्त्वश्रद्धान), द्वप राग, मद, और मदन ( रति- काम) के प्रादिद्वारा चितको कलुति-मलिन करने वाले - क्रोध-मान माया लोभादिकसे अभिभूत अथवा आक्रान्त बनाने वाले-शास्त्रोंका सुनना 'दु श्रुति' नामका अनर्थदण्ड है ।' न व्याख्या - जो शास्त्र व्यर्थके आरंभ- परिहादि के प्रोसेजन द्वारा चितको कलुमित करनेवाले हैं उनका सुनना-पढ़ना निरर्थक है; क्योंकि चित्तका कलुषित होना प्रकट रूपमें कोई हिंसादिक कार्य करते हुए भी स्वयं पाप बन्धका कारण है । इसीसे ऐसे शास्त्रोंके सुननेको, जिसमें पढ़नाभी शामिल है, अर्थदण्ड में परिगणित किया गया है। और इसलिये wers are aतीको ऐसे शास्त्रोंके व्यर्थ श्रवणादिकसे दूर रहना चाहिये। हाँ, गुण-दोषका परीक्षक कोई समर्थ पुरुष ऐसे प्रन्थोंको उनका यथार्थ परिचय तथा हृदय मालूम करने और दूसरोंको उनके विषयकी समुचित चेतावनी देनेके लिये यदि सुनता या पढ़ता है तो वह इस का प्रती होनेपर भी दोषका भागी नहीं होता । वह अपने चित्तको कलुषित न होने देनेकी भी क्षमता रखता है । चिति-सलिल-दहन - पवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदं सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते ||८०|| 'पृथ्वी, जल, अग्नि तथा पवनके व्यर्थ आरम्भको- बिना ही प्रयोजन पृथ्वी के 'खोदने- कुरेदनेको, जल उछालने - छिड़कने पीटने पटकनेको, अग्निके [༢་ जलाने-बुझानेको पवनके पंखे श्रादिसे उत्पन्न करने ताडने रोकनेको व्यर्थके वनस्पतिच्छेदको और व्यर्थ के पर्यटन पर्याटनको -बना प्रयोजन स्वयं घूमनेफिरने तथा दूसरोंके घुमाने फिरानेको- 'प्रमाचर्या' Saree wares कहते हैं। व्याख्या- यहां प्रकट रूपमें आरम्भादिका जो 'विफल' त्रिशेषण दिया गया है वह उसी निरर्थक अर्थ का द्योतक है जिसके लिये अर्थदण्डके लक्षणप्रतिपादक पद्म (७४) में 'अपार्थक' शब्दका प्रयोग किया गया है और जो पिछले कुछ पद्योंमें अध्याहृत रूपसे चला जाता है। इस पथ में वह 'अन्तदीपक' के रूपमें स्थित है और पिछले विवक्षित पयों पर भी अपना प्रकाश डाल रहा है। साथ ही प्रस्तुत पद्यमें इस बातको स्पष्ट कर रहा है कि उक्त आरम्भ, बनस्पतिच्छेद तथा सरण - सारण ( पर्यटन -पर्याटन ) जैसे कार्य यदि सार्थक हैं- जैसा कि गृहस्थाश्रमकी भावश्यकताओं को पूरा करनेके लिये प्रायः किये जाते हैंतो वे इस बनके व्रती के लिये दोषरूप नहीं है। कंदर्प कौत्कुच्यं मौखर्यमतिप्रसाधनं पंच । असमीक्ष्य चाधिकरणं व्यतीतयोनर्थदंड कृद्विरतेः ८१ 'कन्दर्प- कामविषयक रागकी प्रबलता से प्रहास मिश्रित ( हंसी ठट्टेको लिये हुए) भएड (अशिष्ट) वचन बोलना, कौत्कुच्य- हँसी-ठट्ठे और भण्ड वचनको साथमें लिये हुए कायकी कुचेष्टा करना, मौखर्य - ढीठपनेत्री प्रधानताको लिये हुए बहुत बोलना-बकवाद करना, अतिप्रसाधन-भोगोपभोगकी सामग्रीका आवश्यकता से अधिक जुटा लेनाऔर असमीयाऽधिकरण-प्रयोजनका विचार न करके कार्यको अधिक रूपमें कर डालना - ये पाँच अनर्थदण्डव्रत के अतिचार हैं।' अक्षार्थानां परिसंख्यानं भोगोपभोगपरिमाणम् । अर्थवतामप्यवधौ राग-रतीनां तनुकृतये || २ || 'रागोद्र कसे होनेवाली विषयों में आसक्तियोंको कुश करने- घटानेके लिये प्रयोजनीय होते हुए भी इंद्रियविषयोंको जो अवधिके अन्तर्गत - परिमहपरिमाण

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