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कविवर बुधजन और उनकी रचनाएं
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जो कछु नीत अनीत है, निरख पराई गर । क्षमा कर तो रनघट, बड़े धरै जिय वैर ॥ जो जिन दर्शन भ्रष्टक, लाज लोभ भय खाय । इष्ट जानके पग पर, ताको समकित जाय ।। सम्यक् रुचिारषानते, शुद्ध शान उपलब्धि । ताते निज आचरन हो, कर्मनाश शिव सिद्ध । धर्म मूल सम्यक्त जिन, कहो देव निर्दोष । धर्महीन समकित दिना, होय न कबहू मोक्ष ॥ विना मूल ज्यों विटपके, दल फल फूल न वृद्धि । धर्ममूल समकित विना, त्यों न होय सिव सिद्ध । विषम परीषहको सह, विन समकित सरधान । करै कोटि लख बरष तप, तो न लहे निरवान । चूटत काटत दल मलत, मिटत न इम मिथ्यात । मूल उखारत समकिती, पुनि विकास नहि पात ।। चरितमोहनीकै उदै, वर तन धार लेश । पहचान निज अपर कू, रहे उदासी भेस ॥ जो जग अपजस न बढ़, धर्म विरोध न कोय । वा कारिजको समकिती, करै उद्यमी होय ॥ मेरी नाही राजरिद्धि, सुत दारा परिवार । राग दोष तन मन वचन, क्रोध लोभ मद मार ।। मनमें मैं तब ही कियो, अहंकार ममकार । जब जब बांध्यो कर्ममुझ, लयो कुगति दुखभार ॥ मै नहि इनका ये न मम, हुए न होंगे नाहि । मै एकाकी ज्ञान धन, जिसा शिवाले मांहि॥ पहले कीनी भूल जो, उदै आय रस देय । तासौं परवश पररह्यो, करज देय सो लेय ॥ जड़को करता जड़ सही, मै मेरा करतार । विरषा करता होय पर, कैसे भुगतों मार ॥ मन वच काय शरीर सब, पर पुद्गलके बंध । पुनि ज्ञानावरणादि वसु, द्रव्यकर्म सम्बन्ध ॥ मेरा लक्षण चेतना, असंख्यात परदेश । गलै बले पूरै नहीं, आदि अन्त विनिवेश ।। अहो भाग्य समकित जग्यो, निज धन लाग्यो हाथ ।
कर कलेस वाटा वटपा, दुख सहते पर साथ ॥ जो नरभव समकित गहै, ता महिमा सुरलोय । जो अजान विषयागमन, बूई सागर सोय ॥"
इन थोड़ेसे दोहोंपरसे ही पाठक इस ग्रंथकी उपयोगिता महत्ता और विषयविवेचनकी सरल एव मनोहर सरणि का मूल्य आक सकेंगे। और कविके भावुक हृदयकी गतिविधिको भी पहचान सकेंगे। इस तरह यह सारा ही ग्रंथ सैद्धांतिक विवेचन सुन्दर सुगम एवं ललित सूक्तियों, विविध अनुप्रासों आदिको लिये हुए है। यद्यपि यह ग्रंथ भी छप गया है, परन्तु इसका शुद्ध सुन्दर संस्करण अभी तक प्रकाशमें नही आया है जिसके लानेकी आवश्यकता है।
तीसरी रचना 'बुधजन' विलास है। इस ग्रंथमें अनेक फुटकर छोटी-बड़ी रचनाओका संग्रह एकत्र किया गया है जो विभिन्न समयों में रची गई है । छहढाला, इष्ट छत्तीसी, दर्शन पच्चीसी, पूजन करनेसे प्रथम पढा जाने वाला पाठ, ब रह भावना पूजन तथा अनेक सुन्दर भक्तिपूर्ण, औपदेशिक एवं आध्यात्मिक पदोंका संकलन किया गया है, जिनका कुछ परिचय ऊपर कराया जा चुका है। बुधजन विलासकी प्रथम रचना छहढाला बड़ी ही सुन्दर कृति है । इस कृतिको देखकर ही कविवर दौलतरामजीने छहढालाकी रचना की है। छहढालेकी यह रचना जो खड़ी बोलीमें की गई है, मुमुक्षु जीवके लिये हित बोधक जान पड़ती है। इस ग्रंथको कविने सं. १८५९ में वैशाख शुक्ला तीजको बनाकर समाप्त किया है। जैसा कि उसके निम्न पद्यसे प्रकट है:
ठारहसौ पंचास अधिक नव संवत जानों। तीज शुक्ल वैशाख ढाल षट् शुभ उपजानों ।।
इस ग्रंथके अन्तमें कविने आत्म संबोधनका उल्लेख करते हुए लिखा है कि हे बुषजन। करोड़ बातकी यह बात है, उसे अपने हृदयमें धारण कर, और मन वचन कायकी शुद्धिपूर्वक जिन धर्मका शरणा रखना, वह दोहा इस प्रकार है:
कोटि बातकी बात अरे 'बुधजन' उर धरना । मन वच तन शुद्धि होय गहो जिम वृषका शरणा॥
वीरसेवा मन्दिर ता. २६-८-५२