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लोकका द्वितीय गुरु अनेकान्तवाद
( पं० दरबारीलाल जैन कोठिया, न्यायाचार्य )
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ । तस्स भुवणेक्क - गुरुणो णमो अगंतवायस्स ॥
'जिसके बिना लोकका व्यवहार भी किसी तरह नही चल सकता उस लोकके अद्वितीय गुरु 'अनेकान्तवाद' को नमस्कार है ।'
यह उन सन्तोंकी उदघोषणा एवं अमृत वाणी है जिन्होंने अपना साधनामय समूचा जीवन परमार्थ- चिन्तन और लोककल्याणमे लगाया है। उनकी यह उद्घोषणा काल्पनिक नही है, उनकी अपनी सम्यक् अनुभूति और केवलज्ञानसे पूत एवं प्रकाशित होनेसे यथार्थ है । वास्तवमें परमार्थ- विचार और लोक व्यवहार दोनोकी आधार शिला अनेकान्तवाद है । बिना अनेकान्तवादके न कोई विचार प्रकट किया जा सकता है और न कोई व्यवहार ही प्रवृत्त हो सकता है। समस्त विचार और समस्त व्यवहार इस अनेकान्तवादके द्वारा ही प्राणप्रतिष्ठाको पाये हुए है। यदि उसकी उपेक्षा कर जाय तो वक्तव्य वस्तुके स्वरूपको न तो ठीक तरह कह सकते हैं, न ठीक तरह समझ सकते है और न उसका ठीक तरह व्यवहार ही कर सकते हैं । प्रत्युत, विरोध, उलझनें झगड़े फिसाद, रस्साकशी, वाद-विवाद आदि दृष्टिगोचर होते हैं, जिनकी वजहसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप निर्णीत नही हो सकता । अतएव प्रस्तुत लेखमें इस अनेकान्तवाद और उसकी उपयोगिता पर कुछ प्रकाश डाला जाता है ।
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वस्तुका अनेकान्तस्वरूप विश्वकी तमाम चीजें अनेकान्तमय है । अनेकान्तका अर्थ है नानाधर्म | अनेक यानी नाना और अन्त यानी धर्म और इसलिये नानाधर्मको अनेकान्त कहते है । अतः प्रत्येक वस्तुमें नानाधर्म पाये जानेके कारण उसे अनेकान्तमय अथवा अनेकान्तस्वरूप कहा गया है । यह अनेकान्तस्वरूपता वस्तुमें स्वयं है
-- आचार्य सिद्धसेन
आरोपित या काल्पनिक नही है । एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो सर्वथा एकान्तस्वरूप (एकधर्मात्मक) हो । उदाहरणार्थ यह लोक, जो हमारे व आपके प्रत्यक्षगोचर है, चर और अचर अथवा जीव और अजीव इन दो द्रव्योंसे युक्त है। वह लोकसामान्यकी अपेक्षा एक होता हुआ भी इन दो द्रव्योंकी अपेक्षा अनेक भी है और इस तरह वह अनेकान्तमय सिद्ध है। अब उसके एक जीव द्रव्यको ले । जीवद्रव्य जीवद्रव्यसामान्यकी दृष्टिसे एक होकर भी चेतना, सुख, वीर्य आदि गुणों तथा मनुष्य, तिथंच नारकी, देव आदि पर्यायोंकी समष्टि रूप होने की अपेक्षा अनेक है और इस प्रकार जीवद्रव्य भी अनेकान्तस्वरूप प्रसिद्ध है । इसी तरह लोकके दूसरे अवयव अजीवद्रव्यकी ओर ध्यान दे । जो शरीर सामान्यकी अपेक्षासे एक है वह रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणो तथा बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि क्रमवर्ती पर्यायोंका आधार होनेसे अनेक भी हैं और इस तरह शरीरादि अजीवद्रव्य भी अनेकान्तात्मक सुविदित है । इस प्रकार जगत्का प्रत्येक सत् अनकधर्मात्मक ( गुणपर्यायात्मक, एकानेकात्मक, नित्यानित्यात्मक आदि) स्पष्टतया ज्ञात होता है ।
और भी देखिए । जो जल प्यासको शान्त करने, खेतीको पैदा करने आदिमें सहायक होनेसे प्राणियोंका प्राण है-जीवन है वही बाढ़ लाने, डूब कर मरने आदिमें कारण होनेसे उनका घातक भी है । कौन नही जानता कि अग्नि कितनी संहारक है पर वही अग्नि हमारे भोजन बनाने आदिमें परम सहायक भी है । भूनेको भोजन प्राणदायक है पर वही भोजन अजीर्ण