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अनेकान्त
[ वर्ष ११
माना जाता था; क्योकि भारतीय लोकोके पूर्वज व पितृगण वास्तवमें यतियोके ही उपासक थे। इसी मान्यताकी पुष्टि करते श्री वी. आर. रामचन्द्र दीक्षितकार एम. ए. वायुपुराणके उक्त विवरणके आधार पर वायुपुराणको एक प्राचीन पुराण होना सिद्ध करते है और कहते है कि “यह पुराण उस प्राचीन कालका लक्ष्य कराता है जब भारतीय लोगोंमे श्राद्धके दिन योगियोंको भोजन कराना महान लाभ समझा जाता था।"* वैविक ऋषियोंमें श्रमणमार्गका अनुचरण
उक्त श्रमणसंस्कृतिका प्रभाव उस दूरवर्ती कालमें समस्त देशके भीतर कितना बढ़ा-चढ़ा था इसका दिग्दर्शन उन उदाहरणोंसे भी किया जा सकता है जो अथर्ववेदके ११वें काण्डके ५वे सूक्त' मे अथवा उमके भाष्य रूप गोपथ ब्राह्मण (पूर्व)२ में संकेत किये गये है। गोपथ ब्राह्मण (पूर्व) २८ का आशय निम्न प्रकार है :--
महर्षि वशिष्ठका पुत्र शाख (पर्वत)की तलहटीम श्वासोश्वास पर जीवन निर्वाह करता हुआ यह शब्द बोला कि यहा (शख पर्वतपर) शीत और उष्ण दो पानीके झरने हो जायें, सो (वह दो झरने पैदा हो गये), वह झरने सदा चलते रहते है, विषाण (पर्वत) के ऊपर एक वशिष्ठ शिला नामकी एक शिखा है उसके ऊपर दूसरी शिखा कृष्ण शिलाके नामसे प्रसिद्ध है उस शिलापर वशिष्ठ ऋषिने तप किया था, विश्वामित्र और जमदग्निने जामदग्न (पर्वत) पर तप किया था, गौतम और भारद्वाज दोनो ने सिहप्रभव (पर्वत) पर तप किया था, गगु ऋषिने गगु पर्वत पर और ऋषि मुनिने ऋषि द्रोण (पर्वत) पर, अगस्त्य मुनिने अगस्त्य तीर्थ पर तप किया। अत्रि ऋषि दिवि लोकमे तप तपता है, स्वयम्भू कश्यपने कश्यप पहाड़ पर तप किया, कश्यपने यह तप भेडिया, गैछ, लक्कडबघड, कुत्ता, सुअर, नेवला, सर्प, आदि (क्रूर और हिमक पशुओ) के मध्यमें रहते हुए किया है। इस कश्यप तुगके दर्शन मात्रसे अथवा इसकी प्रदक्षिणा करनेमे सिद्धि मिलती है। १००० ब्रह्म वर्षों तक शिवजी ऋषि वनके अन्दर ब्रह्मचर्यपूर्वक एक पावमे खड़े रहे और दूसरे एक हजार ब्रह्मवर्ष तक वे शिरके ऊपर अमृतकी धारा-गंगा-को धारण करते रहे और ४८ हजार ब्रह्म वर्ष तक सलिल पृष्ठ पर शिवजी तप करते रहे।'
उक्त विवरणमें वैदिक वाङ्मयके प्रसिद्ध, ऋषिवर वशिष्ठ विश्वामित्र, जमदग्नि, गौतम, भारद्वाज, गगु, अगस्त्य, अत्रि अथवा उनके वंशजों द्वारा विविध पर्वतों पर तपस्या करने और ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करनेका उल्लेख है।
इन प्राचीन वैदिक ऋषियोंके सम्बन्धमे महाभारतमे भी लिखा है कि, 'महर्षि च्यवन, जमदग्नि, वशिष्ठ, गौतम और भृगु जैसे धमाशील महात्माओने उपवासके ही प्रभावसे स्वर्गलोक प्राप्त किया है।'
इन उदाहरणोंकी पुष्टि जैन साहित्यसे भी होती है । इसमें वेषधारी मुनियोके स्वरूपका उल्लेख करते हुए इस प्रकारके ब्राह्मण ऋषियोमेंसे वशिष्ठ मुनि, मधुपिंगल, बाहु और द्वैपायनका वर्णन आया है और बतलाया गया है कि यद्यपि इन्होंने घरबार छोड़कर धन-धान्य त्यागकर घोर तपश्चरण किया था परन्तु ये ऋद्धिसिद्धकी कामनाओमे फस जानके कारण शिवपदकी प्राप्ति करनेमे असफल रहे।
इससे सिद्ध है कि बुद्ध और महावीरसे भी दूर पूर्ववर्ती कालमें वैदिक ऋषि इन श्रमणोके आध्यात्मिक प्रभावसे प्रभावित हो उठे थे और उन्होंने अपने याज्ञिक मार्गको छोड़कर अध्यात्म उत्कर्षके लिये सन्यासमार्ग और तपमार्गका आश्रय लिया था। इतना ही नही बल्कि उन्होंने अपने साहित्यमे भी महाश्रमण तीर्थङ्करोंका मगल गान करना शुरू कर दिया था। वैदिक साहित्यमें भगवान वृषभदेवका कथन____ गोपथ ब्राह्मणके उक्त कथनमें जगली जन्तुओके बीचमे रहते हुए जिस स्वयम्भू काश्यपकी दुर्धर तपस्याका वर्णन है उसका संकेत जैनियोंके माननीय उस आदि तीर्थङ्करकी ओर मालूम होता है, जो जन मान्यता अनुसार इस युगके आदि धर्म* 'कल्याण' का योगाङ्क, अगस्त १९३५ पाशुपत योगका आरम्भिक इतिहास पृष्ठ २३७
१. अथर्ववेद-११वां काण्ड-सूक्त ५ मन्त्र २४-२६ . २. गोपथ ब्राह्मण-पूर्व २.८.
३. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १०६ श्लोक ६०-७० ! ४. भावप्राभूत, ४४-६८-कुन्दकुन्दाचार्य (ईसाकी प्रथम सदी)