________________
१०६
ऊपर चढ़कर उसके मार डाले जाने का उल्लेख है। मरकर वह भैंसा एक असुर हुआ ।
यह कथानक हरिषेण कृत धर्मपरीक्षामें दशवी सन्धिके छठे कडवक तक पाया जाता है । तत्पश्चात् उसी सन्धिमें ग्यारह कडवक और है, और फिर ग्यारहवीं सन्धिमें सत्ताइस कडवोंकी रचना है, जिनमें श्रावकधर्मका उपदेश दिया गया है। यह भाग श्रुतकीर्तिकी धर्मपरीक्षाकी प्रस्तुत प्रतिसे विच्छिन्न हो गया है। संभवतः वह सातवी सन्धिमे ही पूरा हो गया होगा ।
इस प्रतिमें सन्धि अनुसार कडवकोंकी संख्या निम्न प्रकार है
मां र.
---
A
कडत्रक २५
2018+...? = १७९+.....
थकी प्रत्येक संधिके अन्तमे कविने अपना नाम श्रुतकीर्ति और अपने गुरुका नाम त्रिभुवनकीर्ति अकित किया है। किन्तु कविका और कोई परिचय इस ग्रंथमे उपलभ्य नही हैं । पंडित नाथूरामजी प्रेमी कृत 'दिगम्बर जैनग्रथकर्ता और उनके ग्रथ' नामक सूची में मुझे श्रुतकीर्तिके आगे उनकी तीन रचनाओके नाम मिले --हरिवंशपुराण, ( प्रा० ) गोम्मटसार- टीका और गोम्मटसार- टिप्पण । श्रुतकीर्ति-कृत हरिवशपुराणकी एक प्रति जैनसिद्धान्तभवन, आरामें सुरक्षित हैं । यह ग्रंथ भी अपभ्रंश भाषामे हैं और उसके अन्तमें कविका परिचय निम्न प्रकार पाया जाता है पंचमकाल- चल ग पडमिल्लई ।
३३
तह उवण्ण आयरिय महलई ॥१॥ कुंकुंदगणा अगुकम्मई । जाय मुणिगण विविह सहम्मई ॥२॥ गणबला बागेसरिगच्छ ।
अनेकान्त
दिसंघ मणहर महच्छ ॥३॥ पहाचंद गणिणा सुदपु णई । पोमसिह पट्ट उवष्णई ॥४॥ पुगु सुभचंददेव कमजावई । गणि जिणचंद तह य विक्लायहं ॥ ५ ॥ बिजाणदि कमेग उवष्णहं ।
सीलवत बहुगुग सुबदु०ई ॥ ६ ॥ पोम गवि सिकमिग ति जायइ । जे मंडलारिय विक्लाय ॥७॥
मालववेसे धम्म-सुपारण । मुगिववकति पिउभासण ॥८॥ तह सि अभियवाणि गुगधारउ । तिgaणकति पवोह गसार ॥ ९ ॥ तह सिसु सुद्दकित्ति गुरुभत्तउ । जेहि हरिवंसरपुणु प उत्तउ ॥१०॥ मच्छरउचित बुद्धिविहोणउ । पुण्मायरिहि वयग-पयलोणउ ॥११॥ अव्यबुद्धि बहुदो एलिवउ ।
जं असुद्ध तं सुद्ध करिज्वउ ॥ १२ ॥ एहु सयलगथ सुपमा गहु । रसद्ध महसई बुह जाग संवतु विक्कम तेण णरेसहं ।
॥१३॥
सहसु पंचसय बावण सेसहं ॥ १४ ॥ मंडवगडवर मालवदे सई । साहि गयासु पयान असेसई ॥ १५ ॥ यर- जेरहद जिगहरु चंगउ । मिगाह जिर्णा अभंग ॥ १६ ॥
[ वर्ष ११
सउण्णु तत्य इहु जायउ । चविह संसुणि सुणि अणुरायउ ॥ १७॥ माधकिण्ह पंचमि ससिवार
।
हत्य णखा समत्त गुणाल ॥ १८ ॥ गं सउष्णु जाउ सुपवित्तर | कम्मलयगिमितजउराउ ।।१९।।
( प्रशस्ति-संग्रह पं० के० भुजबलि शास्त्री पृ० १५२ ) इस प्रशस्तिसे हमें निम्न बाते ज्ञात होती है । :
(१) नन्दिसंघ - कुन्दकुन्दाम्नायमे श्रुतकीर्ति हुए जिनकी गुरुशिष्य परम्परा इस प्रकार थी -- प्रभाचन्द्रगणि, पद्मनन्दि (प्र०), शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, विद्यानन्दि, पद्मनन्दि ( द्वि० ), देवेन्द्रकीर्ति, त्रिभुवनकीर्ति, श्रुतकीर्ति ।
(२) श्रुतकीर्तिने अपभ्रशमें हरिवंशपुराणकी रचना माघ - कृष्ण-पंचमी, सोमवार, विक्रसंवत् १५५२ में हस्तनक्षत्र के समय समाप्त की ।
(३) श्रुतकीर्तिने हरिवशपुराणकी पूर्ति मालवदेशके 'जेरहद' नगरके नेमिनाथ जैनमन्दिरमें बैठकर की और उस समय मालवाकी राजधानी मांडवगढ़ थी और वहा शाह ग्यासुद्दीन राज्य करता था ।