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किरण १
भगवान महावीर और उनका सर्वोदय तीर्य
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बह शासन ही विश्वमें हितकारी और उपादेय हो सकता इनके सिवाय देशकी विषम परिस्थिति, राज्याश्रयका है; परन्तु खेद है कि ऐसे महान शासनके अनुयायी आज उसे अभाव, युद्ध, लड़ाई-झगड़े आदि अनेक कारण और भी है भूल चुके है, उनमें विचार-विभिन्नताके कारण संघर्षस्वरूप जो इसकी प्रगतिमें बाधक हुए है। दिगम्बर, श्वेताम्बर, काष्ठासंघ, माथुरसंघ, सेनसंघ, देव- जनसमाजका यह कितना नैतिक पतन हुआ, और वह संघ, और अनेक गणगच्छ तथा तेरापंथ, वीसपंथ, तारणपथ अपने धर्मके वास्तविक स्वरूपसे कितना अनभिज्ञ रहा, कि दस्सा, बीसा आदि अनेक भेद-प्रभेद होते गए, जिनमें से कुछ उस 'सर्वोदय तीर्थ'को अपना सम्प्रदाय समझने लगा जो उसे आज भी मौजूद है । वह शासन अनेक जाति-उपजातियोंमें आत्म-गौरवके लिये मिला था। इतना ही नही, किन्तु बंट गया और इस तरह जातिभेद संघभेद आदिकी गहरी उसे अपनी बपौती जायदाद समझने लगा; पर वह यह भूल दलदलमें फंस गया जिसका दर्शन विशाल साहित्य तथा गया कि धर्म वस्तका स्वभाव है, वह किसी सम्प्रदाय विशेषइतिहासकै अवलोकनसे होता है । ये सब भद हा इसका की सम्पत्ति नही बन सकता और न कोई उसे एक मात्र अवनतिके प्रधान कारण है क्योकि वे सब अनकान्तदृष्टि- अपने अधिकारमें रख ही सकता है। धर्मका उदय तो सबके से सर्वथा दूर है। जहां अनेकान्त उन सबमें समन्वय कर लिये दया। सभी लोग उसका
लिये हुआ है। सभी लोग उसका आचरण कर अपना विकास सकता था और उनके परस्पर भेदको मिटा कर उनमें प्रेम- कर सकते है। मनुष्योंकी तो बात क्या, हाथी आदि तिर्यचं का आभसचार कर सकता था वहा व सब उसका आर पाठ जीवोने भी उसका अनुष्ठान कर अपना आत्मकल्याण किया दिये हुए थे-उसे सर्वथा भूल गये थे। और विचार-संकीर्णता,
है। इस प्रकारके पौराणिक उदाहरण जैनधर्मकी उदारता अनदारता उनमे इतना घर कर गई थी कि वे एक दूसरेकी और उसके सर्वोदयतीर्थ होनेके उज्जवल प्रमाण है । इसके बातको सहने-समझनेकी भी आवश्यकता नही समझते सिवाय आगममें चारों गतिके संजी पर्याप्तक जीवोंके थे, इसीसे वे अवनत दशाको प्राप्त हुए। यहां आचार्य सम्यग्दर्शन होनेका उल्लेख किया गया है। उसमें जाति समन्तभद्रके युक्त्यनुशासनका एक खास वाक्य उल्लेख- भेदको कोई स्थान नही है, और न यही बतलाया गया है कि नीय है :
अमुक जाति वाला सम्यग्दृष्टि हो सकता है तथा सद्धर्मकाल: कलिर्वा कलुषाशयो वा श्रोतु प्रवक्तुर्वचनाऽनयो वा। का पालन कर सकता है। हीनसे हीन जाति वालेके भी स्वच्छासनकाधिपतित्व-लक्ष्मी-प्रभुत्वशक्तेरपवावहेतुः ॥
उच्च विचार हो सकते है और वह सम्यग्दर्शन जैसे रनको इस पद्यमें आचार्य समन्तभद्रने वीरशासनके विश्व
पाकर आत्मलाभ भी कर सकता है । यही तो वीर-शासनकी व्यापीन होनेके अपवादके तीन कारण बतलाये है-कलिकाल,
विशेषता है। श्रोताओंका कलुषाशय और प्रवक्ताका वचनानय। इनमें
वास्तवमें धर्म किसीके अधिकारकी वस्तु है भी नहीं, कलिकालका प्रभाव जैसे साधारण कारणके साथ कलुषाशय वह तो प्रत्येक जीवके अन्तरात्मामें निहित है। और न
ताके कथनमें नय सापेक्ष-दृष्टिका न होना य दा कोई उस धर्मके आचरणसे किसीको अलग ही कर सकता खास कारण है। क्याकि जब श्राताआका चित्त कलुषत है। उदाहरणके लिये मान लीजिये मै अहिंसा और सत्यका हाता ह, दशनमाहोदयसे आक्रान्त हाता ह तब पदाथका आचरण अपने जीवन कर रहा हूं तो कोई भी मानव मेरे यथार्थ स्वरूप प्रतिभासित नही होता। अतः विपरीताभि
उस अहिंसा और सत्य धर्मका अपहरण नही कर सकता, निवेशवश पदार्थोंकी अन्यथा कल्पना और हठधर्मी ही उक्त ।
भले ही मुझे आर्थिक और शारीरिक हानि उठानी पड़े; शासनके ग्रहणमें बाधक हुई है। इसी तरह बक्ताका नय-विषक्षा अथवा सापेक्ष दृष्टिकोणके बिना पदार्थका परन्तु वह मेरा धर्म मेरेसे अलग नहीं हो सकता। निरूपण करना, उपदेश देना भगवान महावीरके शासन- वर्णाश्रम और जातिभेद का समाजमें इतना गहरा प्रभाव प्रचारमें सबसे बड़ा बाधक कारण है। क्योंकि नयदृष्टिके
हा कि लोग धर्मके आयतनस्वरूप मन्दिरोंको भी धर्म बिना पदार्थका यथार्थ कथन नहीं हो सकता। इन दोनों
समझने लगे और स्वयं ही धर्मके ठेकेदार बन गये। उनमें कारणोंसे उक्त शासनका यथेष्ठ प्रचार नहीं हो सका और समशन लग जार स्वय हा धमक०कदार बन गय। उन न वह जगतका पूर्णतया उपकार करने में समर्थ ही हो सका। दूसरोंको प्रवेश नहीं करने देना जैसा एकान्त आग्रह करने