Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 12
________________ ४३४ अनेकान्त [वैसाख, वीर निर्वाण सं० २४६६ 'जनित' शब्दोंका अन्तर है। दर्शनविशुद्धधादिषोडशभावनास्तीर्थकरत्वस्य ॥११॥ बह्वारंभपरिग्रहाद्या नारकाद्यायुष्कहेतवः ॥ ८॥ 'दर्शन विशुद्ध आदि सोलह भावनाएं तीर्थकर 'बहु भारंभ-परिग्रह आदि नारक आदि आयु के नामके प्रास्रवकी हेतु हैं।' .. यहाँ 'आदि' शब्दसे श्रागमप्रसिद्धविनयसम्पइस सूत्रमें दो जगह 'श्राद्य' शब्दका प्रयोग करके नता आदि उन १५ भावनात्रोंका संग्रह किया गया नारक आदि चारों ही गतियोंके श्रास्रव हेतुओंका एकत्र है जिनका उमास्वातिने अपने २४ वे सूत्रमें नामोसंग्रह किया गया है, परन्तु दूसरी गतियोंका एक एक ल्लेखपूर्वक संग्रह किया है। भी कारण सूचना एवं दूसरे कारणोंको ग्रहण करनेकी आत्मविकत्थानाद्या नीचैर्गोत्रस्य ॥ १२ ॥ प्रेरणारूपसे साथमें नहीं दिया है, इससे यह सूत्र श्राव. प्रारमरनापा (अपनी प्रशंसा) आदि नीचगोत्रके श्यकतासे कहीं अधिक संक्षिप्त और अजीबसा ही जान हेतु हैं। पड़ता है । यह विषय मास्वातिने १५ से २१ तक यहाँ 'श्रादि' शन्दसे परनिन्दा, सद्गुणोंका उच्छा... सात सूत्रोंमें वर्णित किया है। दन और असद्गुणोंका उद्भावन, ऐसे तीन हेतुत्रोंका योगवक्रताधों भशुभानाम्नः ॥६॥ संग्रह किया गया जान पड़ता है,जो उमास्वातिके 'परात्म 'योगकी-मन-वचन-कायकी- वक्रता प्रादि अशु- निन्दीपर्शसे" श्रादि सूत्रमे स्पष्टतया उल्लेखितं मिलते हैं। भ नामके पानवहेतु हैं।' तद्वयत्ययो महतः ॥ १३ ॥ यहां 'श्राद्याः' पद बहुवचनान्त होनेसे उसके द्वारा ___'नीचगोत्रके हेतुभोंसे विपरीत-मात्मनिन्दादिक उंच गोत्रके हेतु है।' उमास्वातिके २२र्वे सूत्रमें निर्दिष्ट एकमात्र 'विसंवादन . (अन्यथा प्रवर्तन)' का ही ग्रहण नहीं किया जा सकता _यह सूत्र उमास्वातिके 'तद्विपर्ययों नीचैर्वृत्यनुस्से को चोत्तरस्य' सूत्रके आशयके साथ मिलता जुलता है । बल्कि दूसरे कारणोंका भी ग्रहण होना चाहिये । उन । कारणोंमें सर्वार्थसिद्धिकारने मिथ्यादर्शन, पैशून्य, दानादिविघ्नकरणमंतरायस्य ॥१४॥ ___ 'दानादिमें विग्न करना अन्तराय कर्मके मानवका अस्थिरचित्तता, कूटमानतुलाकरणको भी बतलाया हैं। और लिखा है कि सूत्रमें प्रयुक्त हुए 'च' शब्दसे यहां 'श्रादि' शब्दसे लाभ, भोग, उपभोग, और अगका ग्रहण करना चाहिए। वीर्यका ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि अन्तराय तद्वैपरीत्यं शुभस्य ॥ १० ॥ कर्मके दानान्तराय आदि पाँच ही भेद हैं । इस सूत्रमें 'अशुभ नामके पानवहेतुओंसे विपरीत-योगकी उमास्वाति के सूत्रसे सिर्फ 'दानादि' शब्दः अधिक हैं । सरलता और अनुकूल प्रवर्तनादि-शुभ नामके आस्रव इति श्रीबृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्वार्थ सूत्रे उमास्वातिका 'तद्विपरीतं शुभस्य' सूत्र और यह " 'इस प्रकार श्रीवृहत्प्रभाचन्द्र विरचित तत्वार्थसूत्र दोनों एक ही हैं । सूत्रमें छठा अध्याय समाप्त हुभा।' धाशुभ विकथ । षष्ठिमो। षष्टोभ्यायः ॥ ६॥

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