________________
वर्ष ३, किरण ७]
परवार जातिके.इतिहास पर कुछ प्रकाश
४५३
श्वेताम्बर सम्प्रदायके विद्वानोंने अवश्य ही इस प्राग्वाट बणिकोंमें श्रेष्ठ कहा हैछ । एक और शिलाश्रोर बहुत ध्यान दिया है । उनके प्रकाशित किये हुए लेख दुबकुंड ( ग्वालियर ) गांवमें सं० ११४५ का है। कई हजार लेखोंको मैंने देखा है परन्तु उनमें भी कोई जिसमें वहाँके दिगम्बर जैन मन्दिरके निर्माताको लेख ग्यारहवीं शताब्दीके पहिलेका ऐसा नहीं मिला 'जायसपूर्विनिर्गतवरिग्वंश' का सूर्य कहा है। इसका जिसमें किसी जातिका उल्लेख हो।
अर्थ होता है पूर्वमें जायससे निकले हुए वैश्य वंशका इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान जाति- प्रसिद्ध पुरुष । यह वह समय मालूम होता है जब याँ नौवीं-दसवीं शताब्दीमें पैदा हुई होनी चाहिएँ +। जातियोंको नाम प्राप्त हो रहा था अर्थात् उनके संघों और यही समय परवार जातिकी उत्पत्तिका भी होगा। या जत्थोंको उनके निकासके स्थानके नामसे अभिहित
किया जाने लगा था । जातियोंकी उत्पत्तिके पहलेकी सामाजिक
दक्षिण महाराष्ट्र और उससे और नीचेके भागके __ अवस्था-गोष्ठियाँ
धर्मानुयायियोंमें तो उत्तर भारत के समान जाति-संस्था ग्यारहवीं सदीके कई लेख ऐसे मिले हैं जिनमें का विस्तार शायद हुआ ही नहीं। जैन शिलालेख मन्दिरों या प्रतिमाओं के स्थापित करनेवालोंको या तो संग्रहके शक स० १०४२ के नं. ४६ ( १२६ ) में केवल 'श्रावक' विशेषण दिया गया है या गोष्ठिक। चामुड नामक राजमान्यवणिक् की पत्नी देवमतीके इसीसे ऐसा मालम होता है कि जातियाँ निर्माण होने के समाधिमरणका उल्लेख है । उसमें किसी जातिका पहले गोष्ठियाँ थीं जिन्हें हम संघ, या जत्थे कह सकते निर्देश नहीं । शक १०५६ के लेख नम्बर ६८ (१५९)
में चट्टिकव्वे नामक स्त्रीने अपने पति मल्लिसेहिकी
निषद्या बनवाई। इसी तरह नं० ७८ (१८२), ८१ सिरोही राज्य के कायन्द्रागाँवके श्वेताम्बर जैन मन्दिरको एक देवकुलिका पर वि० सं० १०६१ का लेख
(१८६), ६२ (२४२), ३२६ (१३७) के भी है जिनहै, जिसमें उसके निर्माताको 'भिल्लमालनिर्यातः प्राग्वाट
में सबको सेट्टि (श्रेष्ठि) या व्यापारी ही लिखा है । इन
से यह स्पष्ट है कि निदान विक्रमकी १३वीं शताब्दी वणिजांवरः' अर्थात् भिल्लमालसे निकाला हुआ
तक कर्नाटकमें वैश्योंकी विविध जातियाँ नहीं थीं। लेखसंग्रह ये दो ही संग्रह प्रकाशित हुए हैं। पहलेमें असगकविका महावीर चरित सं० ६१० ( शायद मैनपुरी, एटा श्रादिके मन्दिसेंकी प्रतिमाओके लेख हैं शक संवत् ) चोल देशकी विरला नगरीमें बना है।
और पिछलेमें श्रवणवेलगोला और उसके समीपके ही असगने अपने पिता पटुमतिको केवल श्रावक लिखा लेख है।
है । अर्थात् चोल देशमें भी विक्रमकी म्यारहवीं सदी + स्वर्गीय इतिहासज्ञ पं० चिन्तामणि विनायक तक वैश्योंकी वर्तमान जातियाँ नहीं थीं। .. वैद्यने अपने 'मध्ययुगीन भारत में लिखा है कि विक्रमकी मुनि श्री जिनविजयजी सम्पादित 'प्राचीन नैव आठवीं शताब्दी तक ब्राहकों और सत्रियोंके समान लेखसंग्रह के द्वि० भागका ४२७वे नंबरका लेख । . वैश्योंकी सारे भारतमें एक ही जाति थी।
एपित्राफिया इंडिका जिल्द २ पृ० २३०-४