Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 29
________________ परवार जातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश वर्ष ३, किरण ७ ] हाँ परबारोंमें दस्से भी हैं जो 'बिनैकया' कहलाते हैं । उनमें भी नये और पुराने ये दो भेद हैं। पुराने विनेकया वैसे ही हैं जैसे श्रीमाली, हूमड़ आदि जातिमें दस्सा हैं, अर्थात् उनमें विधवा-विवाह नहीं होता और पहले कभी हुआ था, इसका भी कोई प्रमाण नहीं मिलता । नये विनेकयोंसे भी इनका कोई सम्बन्ध नहीं है । पुराने विकया कहाँ २ अपनेको 'जैसवार' भी कहलाने लगे हैं, पर वास्तवमें जैसवारोंसे उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । एक दल ऐसा भी है जो अपनेको चौखा परवार कहता है । जान पड़ता है कि पंचायती दंड विधानकी सख्ती और प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करनेकी बंदी ही विनैकयों की उत्पत्तिके लिये जिम्मे वार है | पुराने विनैकयोंके विषय में तो हमारा ख्याल है कि किसी समय किसी हुकुम-उदूली आदि के अपरामें ही ये अलग किये गये होंगे और फिर अलसंख्यक होनेके कारण लाचारीसे इन्हें अपने मूर गोत्रोंको अलग रख देना पड़ा होगा । पोरवाड़ों के तीन भेद हैं शुद्ध पोवाड़, सोरठिया पोरवाड़, और कंडुल या कपोल † । फिर इन सबमें गुजरात और राजपूतानेकी अन्य 1 दिगम्बर जैन डिरेक्टरी ( सन् १३१४ ) के अनुसार विनैकेया परवारोंकी संख्या ३६८५ और चौसखोंकी १२७७ थी । + ततो राजप्रसादात्समीपपुरनिवासतो वणिजः प्राग्वाटनामनो वभूवुः । तेषां भेदत्रयम् । पादौ शुद्ध प्रावाटाः । द्वितीयाः सुराष्ट्रं गता । केचित्सौराष्ट्र प्राग्वाडाः । तदवशिष्टाः कंडल महास्थान निवासिताऽपि कंडुल प्राग्वाटा वभवुः । - ' श्रीमाली भोनो शातिभेद' के १०७ में पेजका ज्योंका त्यों उद्धरण । ४२१ जातियों के समान बीसा और दस्सा ये दो मुख्य भेद और हैं। प्राचीन लेखोंमें 'बृहत्शाखा' और 'लघुशाखा' नामसे इनका उल्लेख मिलता है । परन्तु दस्खा कहला कर भी इनमें विधवा-विवाहकी चाल नहीं है और पहले भी थी, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है । धर्मों के कारण पड़े हुए पोरवाड़ों के उक्त भेदों के दो दो भेद और हैं, जैन और वैष्णव । जैनोंमें भी मूर्तिपूजक और स्थानकवासी हैं। इनके सिवाय सूरती, खंभाती, कपड़बंजी, अहमदा बादी, मांगरोली, भावनगरी, कच्छी आदि स्थानीय भेद हो गये हैं और इससे बेटी व्यवहारमें बड़ी मुसीतें खड़ी हो गई हैं। क्योंकि ये सब अपने अपने स्थानीय गिरोहों में ही विवाह सम्बन्ध करते हैं । ऐसा जान पड़ता है कि पोरवाड़ जाति पहले दिग कई प्रबन्धों और पुस्तकों में लिखा है कि आबू के संसार प्रसिद्ध जैनमन्दिर बनवानेवाले महामात्य वस्तुपाल - तेजपाल की माता बाल-विधवा थीं। ये दोनों पुत्र उन्हें पुनर्विवाहसे प्राप्त हुए थे। इस बातको कोई जानता न था । पुत्रोंकी श्रोरसे एकवार तमाम वैश्य जातियोंको महाभोज दिया जा रहा था कि यह बात किसी जानकार की तरफ से प्रकट कर दी गई। तब जो लोग भोज में शामिल रहे वे दस्सा कहलाये और जो उठकर चले गये वे बीसा । कहा जाता है कि उसी समय तमाम जातिमें दस्सा- बीसा की ये दो दो तड़ें हो गई । * श्वेताम्बर जैन डिरेक्टरीके अनुसार बीसा पोरबाड़ों की संख्या १६०१० और दस्ता पोरवादोंकी ६२८१ थी और बम्बई अहाते की सन् १९११ की सरकारी मनुष्य गणना अनुसार वैष्णव पोरवादोंकी संख्या ७७४८ थी । सोरठिया वैष्णव इनसे अलग ११४४५ थे ।

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