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वर्ष ३, किरण . ]
भारतीय दर्शनों में जैन-दर्शनका स्थान
कि सँसारके क्षणिक. सुख-शान्तिको त्याग करते इन सबोंकी सत्ता मानी जाती है । बौद्धोंका कहना हुये कठोर संयममय शुद्ध जीवन व्यतीत करनेके है कि निर्वाण लाभ होते ही जीवशून्यमें विलीन फलस्वरूप मोक्ष लाभ होता है, भारतीय प्रत्येक हो जाता है, किन्तु जैन मतके अनुसार मुक्तजीव दर्शनकी यही राय है, इसमें सन्देह नहीं, पर का अस्तित्व चिर-आनन्दमय है और वही उसका प्रत्येक दर्शन एक दूसरेसे तत्वतः भिन्न ही है। सच्चा अस्तित्व हुआ करता है । यहाँ तक कि बौद्ध जैसे कि उत्तर तथा दक्षिण मेरुमंडल परस्पर दर्शनका कर्म भी जैनदर्शनके कर्मसे भिन्नार्थ वाविभिन्न हैं उसी तरह ग्रीक देशीय सिमिक सम्प्र- चक ही हुवा करता है। दायके मूलसूत्र साईरेनके सम्प्रदायके मूलसूत्रोंसे । पृथक् थे। फिर भी कोई दिन ऐसा था जबकि ।
___ उपर्युक्त कारणोंसे ही हम जैनधर्मको बौद्धदोनों सम्प्रदाय वालोंने सर्वत्यागको ही अपनी धर्मकी एक शाखा मानने के लिये तैय्यार नहीं हैं। अपनी आदर्श नीति मान रक्खा था। ऐसी दशामें
बौद्धदर्शनकी अपेक्षा तो सांख्यदर्शनके साथ जैन
"" दर्शनका निकट सम्बन्ध अधिक रूपमें प्रतीत होता आचारोंकी विभिन्नताको लक्ष्यमें रखते हुये, जैन और बौद्ध धर्मको अपृथक् समझ लेना समीचीन
है। सांख्य और जैनदर्शन दोनों ही वेदान्तके नहीं होगा। वाह्यरूपमें जैन तथा बौद्धधर्ममें जो
अद्वैतवादको त्याग करते हुये, आत्माके बहुत्त्रको कुछ भी समता पाई जाती है उससे वे एक दूसरे
र स्वीकार करते हैं। ये उभय दर्शन जीवातिरिक्त से उत्पन्न हुये हैं, ऐसा कभी प्रमाणित नहीं होता।
अजीव तत्वके पक्षमें पाये जाते हैं। फिर भी इन हाँ, यदि यह कहा जाय कि वैदिक सम्प्रदायके
उभय दर्शनों में से कौनसा दर्शन किससे निकला निष्ठर क्रिया कलापोंके विरुद्ध उठ खड़े होनेवाले है
है अथवा मूलतः इन दोनोंमें कहाँ समता है, यह युक्तिवाद ही इनके उत्पत्तिके एकमात्र कारण हैं
* बतलाना कठिन होगा। साधारणतः यही देखने में तो अनुचित न होगा।
आता है, कि सांख्य और जैनदर्शनमें बहुत कुछ समता है, पर हैं ये दोनों ही एक दूसरेसे पूर्ण
विभिन्न। जैन तथा बौद्ध धर्मके तत्वोंकी यदि ठीक ठीक आलोचना की जाय तो यह स्पष्ट रूपमें प्रकट सबसे पहले यही देखने में आता है कि सांख्यहोजायगा कि ये दोनों धर्म एक दूसरेसे पूर्णतया दर्शनमें अजीव-तत्त्व या प्रकृति एक ही है, किन्तु पृथक है । बौद्धोंका कहना है कि शून्य ही एकमात्र जैन-दर्शनने अजीव-तत्वकी पांच संख्यायें की हैं तत्व है। जैनोंके मतानुसार सत्पदार्थ है एवं और उन पांच अजीवोंमें पुद्गलाख्य अजीव उसकी संख्यायें अगणित हैं। बौद्धमतके अनुसार असंख्यरूपमें विद्यमान हैं । अब इससे यही स्पष्ट
आत्माका कोई अस्त्वित्व नहीं है, परमाणुका भी होता है कि सांख्य दो तत्वोंको ही मानता है, पर कोई अस्तित्व नहीं, दिक्, काल, धर्म (गति) ये जैन बहु-तत्वोंका मानने वाला है और भी इन कुछ भी नहीं हैं, ईश्वर नहीं है; किन्तु जैनोंके मतमें दोनों दर्शनोंमें बहुतसे भेद हैं। सबसे बड़ा भेद