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भारतीय दर्शनों में जैन-दर्शनका स्थान
वर्ष ३, किरगा ]
अहंकार तत्वकी उत्पत्ति भी इसी से है । तदनन्तर प्रकृति अपने आत्मविकास के कारणस्वरूप आव श्यकतानुसार क्रमशः इन्द्रिय, तन्मात्रा, कहे जाने वाले जड़तत्वोंकी सृष्टि अपने आप ही करती रहती है । इस तरह प्रकृतिको अध्यात्मपदार्थ और उसमें पैदा होनेवाले तत्वोंको प्रकृतिके स्वास्म विकास का साधन मान लेनेसे सांख्यकी बताई हुई जगत्विवर्त-क्रिया बहुत कुछ समझ में आजाती है । प्रकृ तिको अध्यात्म पदार्थ के रूप में मानना वस्तुतः अपरिहार्य है । प्राचीन कालमें भी प्रकृति अध्यात्मपदार्थ के रूपमें न मानी गई हो ऐसा नहीं है । कठोपनिषदकी तृतीय वल्लीके निम्न श्लोक नं० १०, ११ में प्रकृतिको अध्यात्मस्वभाव के रूपमें प्रकाश करने एवँ उसके द्वारा साँख्य दर्शनको वेदान्त दर्शन में परिणत करने की जो चेष्टा की गई है वह सुस्पष्ट है:
इन्द्रियेभ्यः परो हार्थ अर्थेभ्यश्च परो मनः । मनसश्चः परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ॥
महतः परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः । पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः ॥
अर्थात-इन्द्रियोंसे अर्थ समूह श्रेष्ठ है, अर्थं समूहोंसे मन श्रेष्ठ, मनसे बुद्धि श्रेष्ठ, बुद्धिसे महदात्मा, महदात्मासे अव्यक्त, अव्यक्त से पुरुष, पुरुष से बढ़कर कोई भी वस्तु श्रेष्ठ नहीं, पुरुष शेष सीमा है और वही श्र ेष्ठ गति भी है।
जैन दर्शनका मत और ही कुछ है। जैन दर्शन
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में अजीब तत्त्व केवल संख्यामें ही एकसे अधिक है, यही नहीं, बल्कि प्रत्येक अजीव तत्व अनात्म स्वभाव है । उपर्युक्त कथनानुसार सांख्य के अजीव तत्व या प्रकृतिको तो अध्यात्म पदार्थ के रूप में परिगत किया जा सकता है । किन्तु जैन दर्शन के अजीव तत्व समूहोंको किसी भी प्रकार से जीव स्वभावापन्न नहीं बनाया जा सकता। जैनमत के अनुसार जीव तत्त्र पंच संख्यक है - पुद्गलाख्य जड़ परमाणु पुंज, धर्माख्य गतितत्व, अधर्माख्य स्थैर्यतत्व, काल और आकाश । ये सब जड़पदार्थ अथवा उसके सहायक हैं, यहाँ तक कि आत्माको भी जैन दर्शनने अस्तिकाय माना है याने परिमाण अनुसार आत्माका "कर्मज लेश्या" या वर्णभेद है । जैनदर्शन में आत्मा अत्यन्त लघु पदार्थ और ऊर्द्धगतिशील कहा जाता है । सब बातें सांख्यमत के विरुद्ध हैं । हमने पहले ही कहा है कि सांख्य दर्शन बहुत कुछ चैतन्यवाद के निकटवर्ती है, और जैन दर्शन प्राय: जड़वाद की ओर झुकता रहता है ।
जैनदर्शन सांख्य दर्शनसे विभिन्न है, सुतरा सांख्य दर्शन से जैनदर्शनकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती। बहुत से ऐसे विषय हैं कि जिनमें सांख्य और जैनदर्शन में परस्पर सम्पूर्ण विरोध है । उदाहरणार्थ यह कहा जा सकता है कि सांख्य के मातानुसार आत्मा निर्विकार और निष्क्रिय है, किन्तु जैनदर्शनका कहना है कि वह अनन्त उन्नति और परिपूर्णता की ओर झुकने वाला अनन्त क्रिया-शक्ति आधार है 1
हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि अहित