Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 45
________________ भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान (लेखक-श्री०हरिसत्य मट्टाचार्य B.A.,B.L.) __ अनुवादक-श्री रामेश्वरजी बाजपेई [अनेकान्त वर्ष ३ किरण २ में "बंगीय विद्वानोंकी जैन साहित्यमें प्रगति” शीर्षक लेख छपा है, उसमें भी हरिसत्य भट्टाचार्यजीका परिचय दिया गया है । उन्हींके लिखित एक निबंधका यह हिन्दी अनुवाद पाठकोंकी सेवामें उपस्थित है। मूल लेख बगला भाषामें 'जिनवाणी' पत्रिका में प्रगट हुआ था, बादको उसका गुजराती में अनुवाद श्रीयुत् सुशील महोदयने स्वतंत्र रूपसे प्रकाशित किया था और फिर वह 'जिनवाणी' नामक ग्रन्थ में भी भट्टाचार्यजीके अन्य लेखों के गुजराती अनुवादोंके साथ प्रगट हुवा था । मुझे भट्टाचार्यजीका यह लेख बहुत पसंद आया और मेरे मित्र श्रीरामेश्वरजी वाजपेईको, जो कि जैनधर्मके परम अनुरागी हैं, अनुवाद करनेके लिये कहने पर उन्होंने काफी परिश्रम करके उसे सम्पन्न किया है। आशा है पाठकोंको भी यह जरूर पसंद आएगा । यदि मेरा यह प्रयत्न पसंद पड़ा तो भविष्यमें भट्टाचार्यजीके अन्य लेखोंका भी हिन्दी अनुवाद प्रकट करनेका प्रयत्न किया जायगा। अगरचन्द नाहटा] अतीतके दुर्भेद्य अन्धकारमें जितने भी है, अनेक पण्डितोंके मतानुसार वह परवर्ती तथ्य मौजूद हैं उनके प्रगट करनेके पक्षमें कालका प्रक्षेप-मात्र है; किन्तु तत्व-विचार क्रियाजो भी प्रयत्न आजतक तत्व-विद्गण करते आये काण्डके साथ एकत्र नहीं रह सकता, तत्व-विचार हैं, वे सब प्रशंसाके योग्य होते हुये भी कभी किस निर्दिष्ट निरूपण-योग्य समयमें अथवा किस कभी जिन घटना-समूहों या सामाजिक, विषयों शुभ मुहूर्तमें सहसा उठ खड़ा हुआ है, ऐसी का काल-निरुपण अङ्कपात-द्वारा- अर्थात ईसवी- बातोंके सोचनेका कोई भी हेतु नहीं है। जैन-धर्म सन्के पहले के हैं या उसके अन्तर्गत-नहीं किया पहलेका है या बौद्ध धर्म, इस विषयमें बड़ा जा सकता, उन्हें निरूपण करनके प्रसङ्गमें प्रायः झगड़ा या वाद-विसम्वाद चल रहा है। किसी देखा जाता है कि विद्वद्गण बड़े भ्रममें पड़ जाया किसी पण्डितके मतसे जैन धर्मकी उत्पत्ति बौद्धकरते हैं। वैदिक कर्मकाण्डके प्रति सबसे पहले धर्मसे है, पक्षान्तरमें किसी किसीके मतसे जैन किस समय युक्ति-चालित समालोचना अवतरित धर्म बौद्ध धर्मसे भी प्राचीन है । इन वादहुई थी, विद्वान लोग प्रायः उस समयको निर्दिष्ट- विसम्वादोंके मध्य जो सत्यान्वेषणकी स्पृहा रूपमें निरूपण करते हुये आपसमें वादानुवाद ही वर्तमान है वह अवश्य ही सम्मानके योग्य है। नहीं करते किन्तु लड़ तक बैठते हैं । वैदिक क्रिया- निःसन्देह जहाँतक अनुमान है, इन सब तर्कोका काण्ड और बहु-देववादके समीप कहीं कहीं जो अधिक अंश बहुधा रुचिकर होते हुये भी केवल जो अध्यात्मवाद और तत्व-विचार देखने में आता मूल्यहीन ही नहीं किन्तु किसी भी देशके तत्व

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