Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 49
________________ वर्ष ३, किरण ७] भारतीय दर्शनमें जैन-दर्शनका स्थान [ ४७१ साथ इसीसे उसकी समता भी की जाती है। मतकी तरह बौद्ध-दर्शन भी अन्ध वैदिक क्रियाकिन्तु विचारपूर्वक यदि देखा जाय तो यह कहना कलापका विरोध करता है, किन्तु बौद्धोंका दोषाही पड़ेगा कि जैनदर्शन चार्वाक मतकी तरह रोप तर्क और युक्तिसे रहित नहीं कहा जा सकता। निषेधमय नहीं है, वरन एक सम्पूर्ण दार्शनिक बौद्धमतके अनुसार जीवनका दुःखमय अस्तित्व मतकी सृष्टि करना ही इस जैन दर्शनका एकमात्र एकमात्र कर्मनिमित्तिक है, जो कुछ किया गया मुख्य उद्देश्य था। सबसे पहिले ध्यान देनेकी है और किया जारहा है उसीके द्वारा ही हमारी बात तो यह है कि चार्वाकमतकी घृणाके योग्य अवस्थाका निरूपण हुआ करता है । असार और इन्द्रिय-सुख परमार्थताको जैनदर्शन बड़ी अवज्ञा अवस्तुका भोगविलास ही असावधान जीवगणोंके के साथ त्याग करता है । निःसार वैदिक क्रिया- हृदयमें मोह पैदा करता है, और उसी भोगकलापोंकी आवश्यकताओंको स्वीकार न करना लालसाके पीछे पीछे दौड़ते रहनेके कारण हम चार्वाक मतके लिये चाहे असङ्गत न हो, पर उन लोग जन्म-जन्मान्तर तक इस जन्ममरणरूपी लोगोंने कभी विषयकी गम्भीरता पर ध्यान नहीं संसारचक्रसे कभी छुटकारा पानेमें समर्थ नहीं दिया और मनुष्य प्रवृत्तिके 'प्रायः उसी अंशकी होते । इस अविराम दुःख और क्लेशसे छुटकारा ओर खिचे रहे जोकि पशुभाव पूर्ण है। उनके पाने के लिये कर्मवन्धनको अवश्य तोड़ना चाहिये । विषय में यह कहा जा सकता है कि वैदिक यदि कर्मके अधिकारको अतिक्रम करना है, तो क्रियाकाण्डके द्वारा लालसा दमन होती थी और कुकर्मोंको छोड़कर सुकर्मोंका अनुष्ठान, लालसाको बेरोक इन्द्रिय चरितार्थके मार्ग काँटोंकी सृष्टि होती त्याग करते हुए सन्न्यासका अभ्यास, हिंसाके थी, इसीलिये वे उसे स्वीकार नहीं करते थे यदि उस बदलेमें अहिंसाके आचरणोंको अपनाना ही होगा। क्रियाका प्रतिवाद करना ही मुख्य उद्देश्य है तो प्रतिवादका ढंग और ही किसी रूपमें होना उचित वैदिक कर्मोंके अनुष्ठानसे मात्र बहुतसे है, नि:सार क्रियाकलापकं अन्ध-अनुष्ठान से प्रागियोंका, जो कि निरपराध है, जीवन नाश ही मनुष्यकी विचार बुद्धि तथा तर्क वृत्तिका मार्ग नहीं होता, वरन् उन कर्मोके अनुष्ठान करनेवालोंके बंद हो जाता है, केवल इसी खयालसे प्रतिवाद अच्छे किये हुये काँके फलस्वरूप स्वगोदि उचित समझा जाना चाहिये । पर बात तो यह है भोगमय स्थानमें भी अवश्य जाना पड़ता है, अतः कि इन्द्रियपरायण मनुष्य इस बातको नहीं वदिक क्रियाकलाप इसी प्रकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समझते, केवल इसीलिये बौद्धमतके अनुसार रूपमें जीवोंके दुःखपूर्ण जन्ममरणका एकमात्र अध्यात्मवादो जैनदर्शन चार्वाक मतको कोई कारण बन जाता है। इसीलिये बौद्धमतके अन. स्थान नहीं देना चाहता। सार वैदिक कर्मकाण्डको त्योज्य माना गया है, चार्वाक मतके बाद ही प्रसिद्ध बौद्ध-दर्शनके और यही मूलसूत्र है। कर्मकाण्डके राज्यको यदि साथ जैन-दर्शनकी तुलना की जा सकती है। नास्तिक अतिक्रम करना है तो हिंसाका त्याग अवश्य

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