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वर्ष ३, किरण ७ ]
तो उनके अन्दर बहुत से तत्व समान भी रह गये होंगे, ऐसा अनुमान असङ्गत नहीं हो सकता । अतएव भारतीय किसी भी विशिष्ट दर्शनके अध्ययन करने के समय भारतवर्ष के अन्यान्य प्रसिद्ध दर्शनों की तुलना की भी बहुत बड़ी आवश्यकता है।
भारतीय दर्शनों में जैन दर्शनका स्थान
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में ही दो चार बातें बतानी हैं। जैनमत के निर्देशके लिए उसके साथ अन्यान्य मतवादोंकी तुलना नीचे लिखे गये ढङ्ग से ही की जा सकती है । वस्तुतः जैमिनीय दर्शनको छोड़कर भारतवर्ष के प्रायः सभी दर्शन खुले या छिपे रूपमें वेदोक्त क्रियाकलाप के अन्धविश्वास के प्रति विद्वेषभावापन्न देखे जाते हैं। सच पूछिये तो संसारमें प्रायः सर्वत्र अन्धविश्वास के प्रति युक्तिवादके अविराम संग्राम ही को दर्शनके नामकी आख्या दी जा सकती है । वर्तमान प्रबन्ध में हमें भारतीय दर्शन-समूहों को जो इसी दृष्टिकोण से उनके प्रत्येक प्रधानतत्वों की आलोचना करना है । स्मरण रहे भारतीय दर्शनसमूहों का जो क्रम विकास इस प्रबन्धमें दिखलाया जायगा वह मात्र युक्तिगत Logical है, कालगत Choronological नहीं ।
अनन्तकल्प, अर्थहीन वैदिक क्रियाकाण्डोंका पूर्ण प्रतिवाद उपस्थित चार्वाक - सूत्रों ही में प्रायः देखा जाता है । प्रत्येक समाजमें प्रतिवाद 1 करनेवाला एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय सदासे चला आ रहा है, तदनुसार प्राचीन वैदिकसमाज में भी एक ऐसा सम्प्रदाय अवश्य था । वैदिक क्रिया. काण्डों पर भाषामें आक्रमण करना किसी समय में भी कठिन बात न थी । असल बात तो यह है कि कोई भी विचारशील या तत्वका जाननेवाला मनुष्य बहुत दिनों तक ऐसे कर्मकाण्डों में सन्तुष्ट नहीं रह सकता । ऐसी दशा में प्रतिवाद करनेका उच्छ्वास सारे यज्ञसम्बन्धीय विधि-विधानोंके लिये यदि एक निन्दाकर कारण बन जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या हो सकता है । यही चार्वाकदर्शन है, वैदिक कर्मकाण्डों का अविराम
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बङ्ग देशमें जैन- दर्शनकी अधिक चर्चा या जैसा चाहिये वैसा उसका आदर न होने परभी यह तो मानना ही पड़ेगा कि भारतवर्षके यावतीय दार्शनिक मतवादों में इसका एक गौरवमय स्थान अवश्य रहा है, और आज भी हैं । तत्वविद्याके यावतीय अङ्ग इसमें विद्यमान होने के कारण जैन दर्शनको एक सम्पूर्ण दर्शन मान लेने में कोई मतभेद नहीं होना चाहिये । वेदोंमें तर्कविद्याका उपदेश नहीं है, वैशेषिक कर्माकर्म या धर्माधर्मको शिक्षा नहीं देता; किन्तु जैन-दर्शन में न्याय, विचार, धर्मविचार, धर्मनीति, परमात्मतत्व आदि सभी बातें विशदरूपमें विद्यमान हैं । जैनदर्शन प्राचीनकालके तत्वानुशीलनका सचमुच एक अनमोल फल हैं, क्योंकि जैन दर्शनको यदि छोड़ दिया जाय तो सारे भारतीय दर्शनोंकी आलोचना अधूरी रह जायेगी, यह अकाट्य सत्य है ।
तत्व
किस ढङ्गसे जैन दर्शनकी आलोचना करनी चाहिये, ऊपर बताया जा चुका है। हम लोगोंकी
लोचना तुलनामूलक हुआ करती है और ऐसी आलोचनायें निस्सन्देह एक कठिन विषय है, सुतरां इस प्रकार की आलोचनाओंके लिये जबतक प्रायः सभी भारतीय दर्शनों के सम्बन्ध में पूरी अभिज्ञता या जानकारी न हो सफलता प्राय: असम्भव है । किन्तु हमें तो इस प्रबन्धमें मूलतत्व के विषय