Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 48
________________ ४७० ] प्रतिवाद, चार्वाक दर्शनको प्रतिवादका दर्शन कहना चाहिये । ग्रीक देशकं सोफिष्ट सम्प्रदायकी तरह चार्वाक दर्शन भी इस बिराट् विश्व-ब्रह्माण्डके विषय में कभी कोई मतामत नहीं प्रगट करता; तोड़ना, दोष मढ़ देना और न मानना यही तो चार्वाकदर्शनका सिद्धान्त है । प्रशंसा करना तो दूर, किसी भी वस्तुको गाड़देना ही चार्वाकोंका एकमात्र कार्य था । वेद परलोकको मानता था, चार्वाक उसे अस्वीकार करता था । कठोपनिषद्की द्वितीय बल्लीके छठे श्लोकमें इस प्रकार के नास्तिकवादका परिचय भी मिलता है । अनेकान्त न साम्परायः प्रतिभाति बालंप्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम् । लोको नास्ति पर ईति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ॥ उक्त श्लोक परलोके प्रति विश्वासहीन मनुष्य के विषय में ही ऐसा कहा गया है। कठोप forest छठी बल्ली द्वादश श्लोक इस प्रकार नास्तिकवाद के दोष दिखलाये गये हैं । "अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते" कठोपनिषत्की प्रथम बल्लीके बीसवें श्लोक में भी परलोक अविश्वासी व्यक्तियोंकी ही भर्त्सना है“येयम्प्रेते विचिकत्सा मनुष्योस्तीऽत्यके [ वैसाख, वीरनिर्वाण सं० २६६४ थे। जिन उपनिषदों को वेदोंका अंश माना जाता है, उन्हीं उपनिषदों में भी यत्र-तत्र कर्मकाण्डों के दोष बतलाये गये हैं । बहुत से उदाहरणों में से नीचेका एक यह भी है: प्रवाह्येते दृढा यज्ञरूपा अष्टादशोक्रमबरं येषु कर्म ऐतत् श्रेयो येsभिनन्दति मूढा जरा मृत्युं ते पुनरेवापि यान्ति । तात्पर्य यह है मुंडक १२७ नायमस्तीति चेके" वेद यज्ञसम्बन्धीय कर्मकाण्डौंका उपदेश देता है, किन्तुस्तिगण न यज्ञ कर्मों की निःसारता बतलाते हैं, और न केवल उनका खण्डन ही करते थे किन्तु उन विधानोंको जनता के समक्ष हास्यास्पद बनाने में भी किंचित्मात्र कुण्ठित नहीं होते यज्ञसमूह और उसके अष्टादश अङ्ग व कर्म सभी अदृढ़ और नाशवान हैं। जो मूढ़ उन्हें श्रेय मानकर पालन करते हैं वे पुन: पुन: जरा-मृत्युको प्राप्त होते हैं। किन्तु उपनिषद और चार्वाक मतमें जो प्रभेद है वह यह है - उपनिषदोंमें एक ऊंचेसे ऊंचे और महानसे महान् सत्यका मार्ग दिखलानेके लिये कर्मकाण्डकी समालोचना की गई है, पर नास्तिक और चार्वाक केवल दोषान्वेषण और उन्हें बुरे. बतलाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करते थे । चार्वाक दर्शन विधिहीन निषेधवाद तथा वैदिक विधि-विधानों की निम्श करना ही अपना एकमात्र उद्देश्य समझता था । हाँ, यह तो अवश्य ही मानना पड़ेगा कि मुक्तिवादकी उत्पत्ति चार्वाक दर्शन से ही हुई थी और भारतवर्ष के अन्यान्य दर्शनों द्वारा इस युक्तिवादकी पुष्टि होती चली गई। नास्तिक चार्वाक मतकी तरह जैनदर्शन में भी वैदिक कर्मकाण्ड की असारता बतलाई गई है, जैनदर्शनने खुलमखुल्ला वेदकं शासनको न मानते हुए नास्तिकोंकी तरह यज्ञादिकी निंदा भी अवश्य की है, जहांतक अनुमान होता है, चार्वाक मतके

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