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चिन्ता-विकाशके क्रमके विषयमें उत्पन्न हुई भ्रान्तधारणा के ऊपर अवलम्बित जान पड़ता है
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[ वैसाख, वीर निर्वाण सं० २४६६.
समक्ष प्रचार करना अवश्य ही गौरवमय व्रत था, इसमें कोई सन्देह नहीं है । हमारी समझ में इसके अतिरिक्त उनलोगों ने तो कुछ भी नहीं किया । मूलतत्व की दृष्टिसे बौद्ध और जैनमत बुद्ध और वर्द्धमानके जन्मकालके बहुत पहले से ही वर्तमान था, अतः उपनिषदकी तरहसे दोनों हो मत प्राचीन कहे जासकते हैं।
कारण, विचार-वृत्ति, जब मनुष्य - प्रकृतिका एक विशिष्ट लक्षण माना जाचुका है, तब यह निस्सन्देह कहा जा सकता है कि, मनुष्य समाज में चिरकाल से कुछ न कुछ अध्यात्मचिन्ता या
विचार होता ही चला आरहा है । यहाँतक कि जिस समय समाज अर्थहीन क्रियाकाण्डके जाल में फँसा हुआ जान पड़ता है उस अवस्था में भी कुछ न कुछ अध्यात्म चर्चा बनी ही रहती है । वस्तुतः क्रियाकाण्डके सम्बन्ध ही में यह कहा जा सकता है कि क्रियाकाण्ड भी सामाजिक शैशवकी सोई हुई मूढ़ताके ऊपर एक प्रकारकी आध्यात्मिकताकी अवतारणा है । सम्यकूरुपमें परिस्फुटन होने पर भी समाजकी प्रत्येक अवस्था में ही एक विचार-वृत्ति प्रचलित नीति-पद्धतिको अतिक्रम करनेकी तथा ऊँचेसे ऊँचे आदर्शकी ओर आगे बढ़ने की स्पृहारूपमें सदा बनी ही रहती है। इसीलिये दर्शनोंका जन्मकाल - निरुपण प्रायः असाध्य होजाता है । जो लोग भिन्न भिन्न दर्शनों के प्रतिष्ठाता माने जाते हैं, उनलोगों के पहले भी वे ही दर्शन-मत बीजरूपमें विद्यमान थे, यह कहने में अत्युक्ति न होगी । बौद्धमत बुद्धके द्वारा एवं जैनमत महावीर से पैदा हुआ है, यह भी एक प्रकारकी भ्रान्त धारण है । इन दोनों महापुरुषोंके जन्मग्रहण के बहुत पहले से बौद्ध तथा जैनशासन के मूलतत्त्व-समूह सूत्ररूपमें प्रचलित थे, उन तत्वसमूहको विस्तृतरूपमें प्रगट करके उनकी मधुरता तथा गम्भीरताको सर्व साधारण जनता के
बौद्ध और जैन मतको उपनिषद् के समकालीन होनेका कोई निर्दशन नहीं मिल रहा, इसी कारण से इन दोनों मतोंको उपनिषद् की तरह प्राचीन नहीं कहा जा सकता, ऐसी युक्तियाँ कदापि समीचीन नहीं हो सकतीं । स्पष्टतया उपनिषदें वेदोंके प्रतिकूल नहीं थीं, इसीलिये उनकी शिष्य मण्डलीकी संख्या सबसे अधिक थी। पहले पहल अवैदिक भतसमूह किंचित् रूपमें सन्देहपूर्ण थे, इसी लिये उन्हें आत्मप्रकाशके लिये बहुत दिनों तक प्रतीक्षा भी करनी पड़ी; किन्तु अध्यात्मवादके रूपमें वे उपनिषद के समय में मौजूद थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है । चिन्ताशील महापुरुषोंने तत्वचर्चाप्रसङ्ग में केवल उपनिषदों के बताये हुए मार्ग ही को एकमात्र मार्ग नहीं समझा जबकि चिन्ता गति वे रोक थी और तत्वलोचना के फलस्वरूप अवैदिक मार्ग भी आविष्कृत हो चुके थे। ऐसी दशा में अन्यान्य मतवादों की अपेक्षा उपनिषद् मतवाद भी कुछ ऐसा सहजबोध्य नहीं था कि यह अनुमान किया जा सके कि सबसे पहले यही आविष्कृत हुआ था ।
वैदिक या अवैदिक मतवादोंने यदि एक ही समय में पैदा होकर क्रमशः उत्कर्ष लाभ किया हो