Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 33
________________ परवार जातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश वर्ष ३, किरण ७ ] जातियों में खतौनी करदी जाय । उस बेचारेने यह सोचने की भी श्रावश्यकता नहीं समझी कि जिस सुदूर कर्नाटक में कुंदकुंदादि हुए हैं वहाँ कभी पल्लीवाल, चौसखों और गोला पूर्वीकी छाया भी न पड़ी होगी । इसके सिवाय और किसी प्राचीन गुरु परम्परामें भी गुरुकी इन जातियोंका उल्लेख नहीं । जैन जातियोंकी उत्पत्तिकी सारी दन्त कथाओं में प्राय एक ही स्वर सुनाई देता है और वह यह कि अमुक जैनाचार्य ने अमुक नगरके तमाम लोगोंको जैन धर्मकी दीक्षा दे दी और तब उस नगरके नामसे मुक जातिका नाम करणं होंगया और उक्त सब श्राचार्य पहली शताब्दी या उसके आस पास के बतलाये जाते हैं। परन्तु ये सब दन्तकथायें ही हैं, और जब तक कोई प्राचीन प्रमाण न मिले तब तक इनपर विश्वास नहीं किया जा सकता। यह ठीक है कि कभी जत्थेके जत्थे भी जैनी बने होंगे, परन्तु यह समझ में नहीं श्राता कि उनमें सभी जातियोंके ऊँच नीच लोग होंगे और वे सब के सब एक ग्रांमके नामकी किमी जाति में कैसे परिणत हो गये होंगे। क्योंकि ऐसी प्रायः सभी जातियोंमें जो स्थानोंके नाममे बनी हैं जैनी - श्रजैनी दोनों ही धर्मोके लोग अब भी मिलतें हैं । जैनी अजैनी भी बनते रहे हैं और जैनी जैनी । गोत्र परवार जातिके बारह गोत्र हैं. परवारोंके इतिहास के लेखक के लिये जरूरी है कि गोत्रोंके बारेमें भी वह लिखे । गोत्रोंके विषय में कुछ लिखने के पहले हमें यह जानना चाहिये कि गोत्र चीज क्या हैं ? वैयाकरण पाणिनिने गोत्रका लक्षण किया है 'अपत्यं पौत्रप्रभूनि गोत्रम् । अर्थात् पौत्र से शुरू करके संतति या वंशजको गोत्र कहते हैं | वेद कालसे लेकर अब तक ब्राह्मणोंमें, चाहे ४२२ वे किसी भी प्रांत के हों, यह गोत्र-परम्परा अखण्डरूपसे चली आ रही है। महाभारत के अनुसार मूल गोत्र चार हैं- अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु । इन्हींसे तमाम कुलों और लोगोंकी उत्पत्ति हुई है और आगे चलकर इनकी संख्या हजारों पर पहुँच गई है × । ज्यों ज्यों आबादी बढ़ती गई त्यों त्यों कुलों और परिवारोंकी संख्या बढ़ने लगी। किसी कुलमें यदि कोई विशिष्ट पुरुष हुआ, तो उसके नामसे एक अलग कुल या गोत्र प्रख्यात हो गया। उसके बाद आगे की पीढ़ियोंमें और कोई हो गया, सो उसका भी जुदा गोत्र प्रसिद्ध होगया । इसी तरह यह संख्या बढ़ी है । गोत्रोंके बारेमें वैश्योंकी अपनी विशेषता क्षत्रियोंकी गोत्र- परम्परा के विषय में इतिहासका कथन है कि वह बीच में शायद बौद्धकाल में विछिन्न हो गई और उसके बाद जब वर्णव्यवस्था फिर कायम हुई, तो क्षत्रियोंने अपने पुरोहितोंके गोत्र धारण कर लिये । अर्थात् पुरोहितका जो गोत्र था वही उनका हों गया । विज्ञानेश्वरने मिताक्षरामें यही कहा है कि क्षत्रियोंके अपने गोत्र-प्रवर नहीं है, पुरोहितोंके जो हैं वही भेद है। वैश्योंके विषय में भी यही कहा जाता हैं कि उनके हैं । परन्तु बहुतसे विद्वानोंका इस विषयमें मत उनकी गोत्र-परम्परा नष्ट हो चुकी थी और पुरोहितों के गोत्र उन्होंने भी हरण कर लिये होंगे । परन्तु अग्रवाल यदि जातियोंके गोत्र देखनेसे यह बात गलत मालूम होती है । उनके गोत्र पुरोहितोंसे जुदे हैं । बहुत-सी वैश्य जातियाँ ऐसी भी हैं जिनमें गोत्र * शांतिपर्व अध्याय २३६ । > गोत्राणां सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च । -प्रवराडी ।

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