________________
४५४
अनेकान्त
[वैसाख, वीरनिर्वाण सं०२४६६
. स्थानों परसे जातियाँ बन जाने पर जब उनका प्रतिपादन करते हैं * और अनुलोम-विवाहोंसे अर्थात् फैलाव हुआ और वे दूर दूर तक फैल गई, तब यह ऊपरके बर्णं वालोंका नीचेकी वर्णकी कन्याके साथ भी लिखा जाने लगा कि अमुक जातिका अमुक स्थान सम्बन्ध होनेसे वर्णसंकरता होती ही है और यदि 'जाति में उत्पन्न हुआ या रहने वाला । जिस तरह नेमि- संकरता' में जातिका अर्थ वर्तमान जातियाँ हैं, तो वे निर्वाणके कर्ता वाग्भटने अपनेको 'अहिच्छत्रपुरोत्पन्नः तो इन्द्रनन्दिके कथनानुसार उस समय थीं ही नहीं। प्राग्वाटकुलशालिनः' लिखा है अथवा गिरनारपर्वतके आदिपुराणके मतसे तो वर्णसंकरताका अर्थ वृत्ति या नेमिनाथ मन्दिरकी सं० १२८८ की प्रशस्तिमें वस्तुपाल- पेशेको बदलना है, अर्थात् किसी वर्ण के श्रादमीका तेजपालको 'अहिल्लपुरवास्तव्य-प्राग्वाटान्वयप्रसूत' अपना पेशा छोड़ कर दूसरे वर्ण का पेशा करने लगना लिखा है अर्थात् अणहिलपुरके निवासी प्राग्वाट है और उस समय इस संकरताको रोकना राजाका जातिके । इसके बाद और आगे चलकर जातियोंके धर्म था + । ग़रंज़ यह कि जातियोंके स्थापित करने गोत्रादि भी लिखे जाने लगे।
और वर्ण संकरताको मिटाने में कोई कारण-कार्य-सम्बन्ध . जातियोंकी उत्पत्तिके समयके बारेमें अन्य समझमें नहीं आता है। मतोंका खण्डन
एक और प्रमाण जातियोंकी प्राचीनताके विषयमें चौदहवीं सदीके भट्टारक इन्द्रनन्दिने अपने नीति- यह दिया जाता है कि चंकि आचार्य गुप्तिगुप्त परवार सारमें लिखा है कि विक्रमादित्य और भद्रबाहुके स्वर्गः थे, कुन्दकुन्दस्वामी पल्लीवाल थे, उनके गुरु जिनचंद्र गत होने पर जब प्रजा स्वच्छन्दचारिणी होगई तब चौसखे परवार, वज्रनन्दि गोलापर्व और लोहाचार्य जातिसंकरतासे डरनेवाले महर्द्धिकोंने सबके उपकारके लमेच थे, इसलिए सिद्ध होता है कि कुन्दकुंदाचार्यसे लिए ग्रामादिके नामसे जातियाँ बनाई * परन्तु इसके भी पहले जातियाँ थीं । परन्तु जिस पट्टावलीके आधार लिए कोई विश्वासयोग्य प्रमाण नहीं है। विक्रम या से यह बात कही जाती है उसकी प्रामाणिकतामें घोर भद्रबाहुका समय भी एक नहीं है । इसके सिवाय सन्देह है और वह भी चौदहवीं सदीसे पहले की नहीं जातियोंका संकर न हो जाय अर्थात् मिश्रण न होजाय, है। उसके कर्ताको शायद इसके सिवाय कोई धुन ही इसका अर्थ भी कुछ समझमें नहीं आता है । जाति नहीं रही है, कि बड़े बड़े प्राचार्योंकी खास खास सकरताका अर्थ यदि वर्णसंकरता है तब तो प्राचीन
* आदिपुराण पर्व १६ श्लोक २४७ । जैनधर्म इसका विरोधी नहीं था, क्योंकि भगवजिनसेन
__+स्वामिमा वृत्तिाम्ब यस्त्वन्यां वृत्तिमाचरेत । अपने श्रादिपुराणमें अनुलोम-विवाहोंका स्पष्ट रूपसे
सपाथिनियंतची वर्णसंकीर्णिरन्यथा ॥ + एपिप्राकि इंडिका जिक्द २ पृ० २३७.३० ।
-पर्व १६ श्लोक २४८ । * स्वर्गे गते विक्रमा मद्रबाही च योगिनि ।
अर्थात् जुदा जुदा वर्णोकी जो वृत्ति ( पेशा) प्रजाः स्वच्छन्दचारियो बभूवुः पापमोहिताः । नियत की गई है, उसे छोड़कर दूसरे वर्सकी वृत्ति करने तदा सर्वोपकारावं जाति संकरभीरभिः। लगनेको राजा लोग रोकें, अन्यथा वर्णसंकरता हो महर्दिक परंचके प्रामाभिधया कुखम् ॥-वीतिलार। जायगी।