________________
४४०
अनेकान्त
[वैसाख, वीरनिर्वाण सं०२४६६
____चत्र प्रादिके द्वारा सिद्धभेद साध्य हैं-विकल्प- इति श्री वृहत्प्रभाचंद्राचार्यविरचिते तत्त्व नीय-हैं। .
___ सारे सूत्रे दशमोध्यायः ॥१०॥ यहाँ 'आदि' शब्दसे उन अगमोदित काल, गति,, ... इति जिनकल्पिसूत्र समाप्तं ॥ लिंग, तीर्थ, प्रत्येकबोधित, बुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाह- . . 'इस प्रकार वृहस्प्रभाचन्द्राचार्य विरचित तत्वार्थना, अन्तर, संख्या और, अल्पबहुत्व भेदोंका संग्रह सार सूत्रमें दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ।' किया गया है. जिनके द्वारा सिद्धोंमें नयविवक्षासे विक- 'इस प्रकार जिनकल्पी सूत्र समाप्त हुआ।' ल्प किया जाता है उन्हें भेदरूप माना जाता है- वीरसेवा-मन्दिर, सरसावा, ता० २१-४-१६४०
और जिनका उल्लेख उमास्वातिने अपने क्षेत्रकालगति... . बहुत्वतःसाध्याः' सूत्रमें किया है । और सर्वार्थसिद्धिकारादिने जिनका विशेष विवेचन किया है।
विविरचिते । जिनकल्पी सूत्र
........ - परमाणु ! ... रच०–श्री॰चैनसुखदास न्यायतीर्थ] '
- अजब हैं तेरे सब व्यापार ! तु अनित्य औ' नित्य कथश्चित् । स्पर्श द्वय-रस-गन्ध-रूप-मय. कभी न मिलता तुझसे सञ्चित् विश्वोदय औ' लयका प्रालय : बन जाता जब स्कन्ध बन्ध-मय पा अनन्त परिवर्तन, फिर भी
हो जाता सविकार। रहता है अविकार ।
आदि-मध्य-अवसान न होता शाङ्कर-छिद्र सहित क्तलाते फिर भी तू षटकोण कहाता छिद्र रहित सब दर्शन गाते ।
४. साँख्य पतञ्जलिकी तन्मात्रा तुझे बताते विधि-विधानमें । ........ तु त्वन्मय संसार । . आदि-अन्तका द्वार ।
1. यह अनन्त रचना सब तेरी. सर्व: तन्त्र-सिद्धान्त बनाते x विश्व-प्रकृति है तेरी घेरी तुझे तत्ववेत्ता बतलाते । जल-थल-सूरज-चन्द्र आदिमें विविध क्रिया-गतिका आश्रय तू
तेरा ही विस्तार। अववि का है सार ।