Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 21
________________ वर्ष ३, किरण • } परवार जातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश जब इनकी स्वाधीनता छिन गई और एकतंत्र राज्यों में शब्द पल्लीवाल, अोसवाल, जैसवाल जैसा ही है और इनको समाप्त कर दिया, तब ये शस्त्र छोड़कर केवल उसमें नगर या स्थानका संकेत सम्मिलित है । महतरों वैश्य कर्म ही करने लगे और अब उनमें से कितने ही या महाब्राह्मणोंसे जो परवारोंकी उत्पत्तिका अनुमान पुराने नामोंको लिए हुए जातिके रूपमें अपना अस्ति- किया हैं वह तो निराधार और हास्यास्पद है ही, इस त्व बनाये हुए हैं । संभव है कि अन्य वैश्य जातियों के लिये उस पर कुछ लिखनेकी जरूरत ही नहीं मालम विषयमें भी खोज करनेपर उनका मूज भी अरोड़ा, मी गोरा होती। ... . खत्री, मल्ल श्रादि जातियों के समान प्राचीन गणतंत्रॉमें ___अगर हम 'परवार' शब्दके अन्तका 'वार' 'वाट' मिल जाय इस विषय में यह भी संभव है कि कई के अर्थ में लें तो यह सिद्ध करना ज़रूरी है कि इस समय बार स्थान परिवर्तनके कारण नये स्थानों परसे नये परवार जातिका जहाँ श्रावास है वहाँ वह किसी समय नाम प्रचलित हो गये हों और पुराने गणतंत्र वाले नाम कहीं अन्यत्रसे आकर बसी है। उसे वर्तमान आवास भूल गये हों। स्थानमें आये हुए कई शताब्दियाँ बीत गई हैं इसलिए परवारोंके विषयमें प्रचलित मान्यताओंका उनके रहन-सहन, रीति-रिवाजोंमें पहले कुछ खोज निका. लना, अशक्य सा है, फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जिनसे खंडन और अपने मतका स्थापन । बाहरसे आनेका अनुमान- ज़रूर हो सकता है 1. सबसे परवार जाति के विषय में अधिक खोज करनेसे पहले पहली बात पंचायती संगठन है । बुंदेलखंड और मध्ययह जरूरी है कि इसके सम्बन्धमें प्रचलित मान्यताओं प्रदेशमें शायद ही कोई ऐसी मूल जाति हो जिसमें इस का विचार किया जाय । तरहका पंचायती अनुशासन हो यह अनुशासन उन्हीं ___'परवार' शब्दको बहुतसे लोग 'परिवार' का अप जातियोंमें होना स्वाभाविक है जो कहीं अन्यत्रसे श्राकर भ्रष्ट रूप बतलाते हैं जिसका अर्थ कुटुम्ब होता है । कोई वसती हैं और जिन्हें दसरों के बीच अपना स्थान बनाकर यह भी कल्पना करते हैं कि शायद परवार 'परमार' रहना पड़ता है या जो गणतंत्रोंकी अवशेषहैं। इनके व्याह राजपूतों मेंसे हैं, जिन्हें आजकल पंवार भी कहते हैं। शादी अादिके रीति-रिवाज भी अन्य पड़ोसी जातियोंसे परन्तु ये सब कल्पनायें हैं । मूल शब्दसे अपभ्रष्ट होने के निराले हैं । ब्राह्मणोंको इस जातिने अपने सामाजिक और भी कुछ नियम है और उनके अनुसार 'परमार' से धार्मिक कार्योसे बिल्कुल बहिष्कृत कर दिया है । यहाँ 'परवार' नहीं बन सकता। अपभ्रंश में 'म' का कुछ तक कि उनके हाथका भोजन भी ये नहीं करते। यदि अंश शेष रहना चाहिए जैसा कि 'पँधार' में वह अनु ये जहाँ हैं वहींके रहने वाले होते, तो ब्राह्मणोंका प्रभाव स्वार बनकर रह गया है। हमारी समझमें परवार इनपर भी होता जो प्रत्येक प्रांतकी प्रत्येक जातिमें परम्परा *इस विषयकी विशेष जानकारीके लिए देखो स्व- गत रहा हैं । इनकी स्त्री पुरुषोंकी पोशाकमें भी विशेषता गीय म०म० के० पी० जायसवाल कृत 'हिन्दू राज्य- थी, जो अब लुप्त हो रही है। हमारी समझमें घाघरा, लंत्र। . . 'चाल' शब्द संस्कृत के 'वाट' या 'पाट' प्रत्ययसे बना है। पिरवार, पल्लीवाल वगैरह शब्दोंका 'वार' या देखो भागे इसी विषयकी एक टिप्पणी ।

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