Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 22
________________ ४४ भनेकान्त [वैसाख, वीरनिर्वाण सं०२४६६ - चुनरी और तनीदार चोली परवार स्त्रियोंकी ही विशे- तीसरा लेख प्रानपुरा (चंदेरी) की एक प्रतिमाका पता थी, जो पड़ोसी जातियोंमें नहीं थी और यदि थी तो है-- बीके अनुकरण-पर। "संवत् १३४५ आषाढ़ सुदि २ बुधौ (धे) श्री मूल परवार जाति बाहरसे आकर बसी है, इसके अन्य संघे भट्टारक श्रीरत्नकीर्तिदेवाः पौरपाटान्वये साधुदा हृद प्रमाण इसी लेखमें अन्यत्र मिलेंगे। भार्यावानी सुतश्च सौ प्रणमति नित्यं ।” .. परवार जातिका प्राचीन नाम इसमें भी मूर्ति प्रतिष्ठित करनेवाले पौरपाट अन्वयके हैं । . अब देखना चाहिए कि प्राचीन लेखोंमें इस जाति स्पष्ट मालूम होता है कि इन लेखोंमें 'पौरपाट' का नाम किस रूपमें मिलता है। मेरे सन्मुख परवारों या 'पौरपट्ट' शब्द परवारोंके लिए ही आया है क्योंकि द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमानों और मन्दिरोंके जो थोड़ेसे लेख इन प्रांतोंमें जैनियोंमें परवार लोग ही ज्यादा हैं । फिर है, उनमें से सबसे पहला लेख अतिशय क्षेत्र 'पचराई भी अगर इस पर शंका की जाय कि पौरपट्टया पौरके शांतिनाथके मन्दिरका है जो वि० सं० ११२२ का पाट वंश परवार ही है, इसका क्या प्रमाण ? तो इसके है। उसका यह अंश देखिए लिए चन्देरीकी श्री ऋषभदेवजीकी मूर्तिका यह लेख पौरपरट्टान्वये शुद्धे साधुनाम्ना महेश्वरः । देखिए-- " महेश्वररेव विख्यातस्तत्सुतः ध(म) संज्ञकः ॥ संवत् ११०३४ वर्षे माघ सुदी ६ बुधौ (धे ) - अर्थात् पौरपट्ट वंशमें महेश्वरके समान साहु महे. मूलसंघे भट्टारक श्री पद्मनन्दिदेव-शिष्य-देवेन्द्रकीर्ति श्वर थे जिनका पुत्र ध (म) नाम का था। पौरपाट अष्टशाखा अाम्नाय सं० थणऊ भार्या पु तत्पुत्र दूसरा लेख चंदेरीके मन्दिरकी पार्श्वनाथकी प्रतिमा सं० कालि भार्या आमिणि तत्पुत्र सं० जैसिंघ भार्या पर इस तरह है:-- महासिरि तत्पुत्र सं०..........." "संवत् १२५२ फाल्गुन सुदि १२ सोमे पौरपाटा- इसी तरह का लेख देवगढ़ में है जिसका एक न्वये साधु यशहृद' रुद्रपाल साधु नाल भार्यायनि...... अश ही यहाँ दिया जाता है - पुत्र सोलू भीमू प्रणमंति नित्यम् ।” "संवत् १४६३ शाके १३५८ वर्षे वैशाख बदि ५ गुरौ दिने मूलनक्षत्रे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे साहु सोलु भीमूने सं० १२५२ में यह प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी और वे पौरपाट अन्वय या वंशके थे। सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवाः तच्छिध्य वादिवादीन्द्रभट्टारक श्री पद्मनन्दिदेवा ॐ यह लेख पचराई तीर्थकी रिपोर्ट में छपा है । इस च्छिष्य श्री देवेन्द्रकीर्तिदेवाः पौरपाटान्यवे अष्टका कटिंग बाबू ठाकुरदासनी बी. ए. टीकमगढ़ने कृपा ...... करके मेरे पास भेज दिया है। उसके नीचे छपा है, यह संवत शायद १४९३ हो । प्रतिलिपि करने 'पुरातत्वविभाग ग्वालियरसे प्राप्य'। इस निबन्धके वाले ने गलत पढ़ लिया है, ऐसा जान पड़ता है। · अन्य प्रतिमा-लेख भी उक्त बाबू सा० की कृपासे ही यह लेख हमें बाबू नाथूरामजी सिं० की प्राप्त हुए हैं। लेखोंकी कापी सावधानीसे नहीं की गई कृपासे प्राप्त हुआ है । इसकी नकल बहुत ही अशुद्ध है। पढ़ने में भी भ्रम की हुई है

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