Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 25
________________ वर्ष ३, किरण •] परवार जातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश या 'पुरवार' शब्द बनता है जो 'परवार' शब्दके अधिक साँभरके अासपास था । पर बघेरवाल आज कल निकट है । संभव है 'परवार' लोग अपने 'पोरवाड़' बरारमें ही अधिक हैं । पल्लीवालोंका मूलस्थान 'पाली' कहलानेवाले भाइयोंसे पहले ही मेवाड़ छोड़ चुके हों मारवाड़में है जो अब य० पी० के अनेक जिलोंमें फैले पर बादमें बहुत दिनों तक सम्बन्ध बना रहा हो और हुए हैं। इसी तरह श्रीमाल, अोसवाल, मेड़वाल, तब जिस तरह लेखोंमें पोरवाड़ 'पौरपाट' लिखे जाते , 'चित्तौड़ा आदि जातियाँ हैं जिनके मूलस्थान राजस्थान रहे हों उसी तरह इन्हें भी 'पौरपाट' लिखा जाता रहा में निश्चित हैं+। ऐसी दशामें परवारोंका भी मूल: हो। पर बोलचाल में 'पुरवार' या 'परवार' ही बने स्थान मेवाड़में होना संभव है । आज भी अपने देशको रहे हों। . छोड़कर दुनियाँभर में व्यापार निमित्त जानेकी जितनी इसके सिवाय एक संभावना और भी है। वह यह पं. आशाधरजी बघेरवाल थे। वे मांडलगढ़में कि गुजराती और राजस्थानी भाषाओंमें शन्दके शुरू में पैदा हुए और शहाबुद्दीन गौरीके आक्रमणोंसे त्रस्त और बीचका 'उ' कार 'श्री' कारमें बदल जाता है। होकर बहुत लोगोंके साथ मालवेमें मा बसे थे। देखो अक्सर लोग 'बहुत' का उच्चारण 'बहोत' 'लुहार' का मेरी विद्वन्द्ररनमानाका पृ. १२.१३ । पूर्वकालमें इसी 'लोहार' 'सुपारी' का 'सोपारी' 'मुहर' का 'मोहर' 'गुड़' तरहके कारणोंसे जातियाँ बन जाती थीं। को 'गोड' 'पुर' का 'पोर' करते हैं और लिखते भी हैं । इस तरह सहज में ही उस तरफके लोग 'पुरवार' या ____ + इनमें 'नेमा' और 'गोलाबारे' जातिको भी 'पुरवाट' को 'पोरवार' 'पोरवाट' या 'पोरवाई' उच्चारण शामिल किया जासकता है। मालवा और सी० पी० करने लगे हों और एक ही जानि इस तरह दो में 'नेमा' वैष्णव और जैन दोनों हैं। बरारमें ये 'नेवा' हों। कुछ भी हो पर यह बात निश्चित् है कि 'पौरपाट' कहलाते हैं और श्वेताम्बर जैन डायरेक्टरीके अनुसार शब्द जब बना तब वह 'पोरवाई' का ही संस्कृत रूप ५६०८ में गुजरातमें इनकी संख्या ११०२ थी। सिर्फ माना गया। बागबमें इनके कई हजार घर हैं। सूरत जिलेमें और ___ 'वैश्यवंशविभषण' नामक पुस्तक में जो बहुत उसके आसपास एक 'गोनाराणे' नामकी जाति भावाद पहले एंग्लो अोरियण्टल प्रेस लखपऊसे छपी थी परवारों है जिसके बारेमें मेरा अनुमान है कि यही बुन्देलखण्डमें का नाम 'पुरवार' छपा है । इससे मालूम होता है कि आकर गोलालारे' कहलाने लगी है। ये लोग अपनेको परवारों के लिए 'पुरवार' शब्द भी व्यवहृत होता था । क्षत्रिय बताते हैं और वैश्य हैं । स्व० मुनि बुद्धिसागर सम्पादित 'जैन-धातु-प्रतिमा-लेख-संग्रह' नामक पुस्तक परवार जातिका मूल राजस्थान में है, यह बात के पहले भागके ५० नं० के एक लेखमें एक प्रतिमाके सुननेमें कुछ लोगोंको भले ही विचित्र मालम हो, पर स्थापकको 'गोलावास्तव्य' लिखा है जिससे मालूम जातियोंके इतिहासका प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि होता है कि 'गोला' नामका कोई नगर था जिसमेंसे वैश्योंकी करीब करीब सभी जातियाँ राजस्थानसे ही गोलापुरव, गोलाबारे और गोलसिघाड़े ये तीनों ही निकली हैं । उदाहरणार्थ बघेरवालोंका मूलस्थान 'बधेरा' समय समय पर निकले होंगे।

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