Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 23
________________ वर्ष ३, किरण ७ ] परवार जाति के इतिहास पर कुछ प्रकाश शाखे श्राहारदानदानेश्वर सिंघई लक्ष्मणतस्य भार्या नहीं रह जाता कि पौरपट्ट या पौरपाट† परवारोंका हो अय सिरिकुक्षिसमुत्पन्न श्रर्जुन... ।" पर्यायवाची हैं। उक्त लेखों में 'पौरपाट' के साथ 'ष्टशाखा लिखा गया है और चूंकि आठसखा परंवार ही होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि 'पौरपाट' शब्द 'परवार' - जाति के ही लिये प्रयुक्त किया गया है। लगभग इसी समयका एक और लेख प्रानपुरा ( चंदेरी) घोंडशकारण यंत्र पर ख़ुदा हुआ देखियेसं० १६८२ मार्गसिर यदि वो भ० ललितकीर्तिपट्टे भ० श्री धर्मकीर्ति गुरुपदेशात् परवार धनामूर सा० हठीले भार्या दमा (या ) पुत्र दयाल भार्या केशरि भोजे गरीब भालदास भार्या सुमा....." er एक और लेखांश देखिये जो पपौंस जीके भौंह के मन्दिरके दक्षिण पार्श्वके मन्दिरकी एक प्रतिमा पर खुदा है | ""संवत् १७१८ वर्षे फाल्गुने मासे कृष्णपक्षे ....श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुन्दाचार्यन्वये भट्टारक श्री ६ धर्मकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्री ६ पद्मकीर्तिदेवास्तपट्टे भट्टारक श्री ६ सकलकीर्तिरुपदेशेनेयं प्रतिष्ठीकृता तद्गुरूराद्योपाध्याय नेमिचन्द्रः पौरपट्टे अष्टशाखाश्रये धनामूले कासिल्ल गोत्रे साहु धार भार्या लालमती' * ' एक और लेख थूबोन जीकी एक प्रतिमा पर इस प्रकार है— "सं० ( १६ ) ४५ माघ सुदी ५ श्री मूलसंघे कुंदकुन्दाचार्यान्वये भ० यशकीर्ति पट्टे भ० श्री ललितकीर्ति पट्टे भ० श्री धर्मकीर्ति उपदेशात पौरपट्टे छितिरामूर गोहिल गोत्र साधु दीनू भार्या .. .........93 इस तरह के और भी अनेक लेख हैं जिनमें मूर और गोत्र भी दिये हैं। इससे इस विषय में कोई सन्देह * साहु अधारके ही वंशका सं०१७०६ का एक लेख ललितपुर के क्षेत्रपाल के दक्षिण तरफ़ पार्श्वनाथ की खङ्गासनस्थ मूर्तिपर खुदा । उसमें भट्टारकोंकी परस्परा भी यहो दी है पर मूर और गोत्र नहीं है। सिर्फ 'पौरपट्टे भ्रष्टशाखान्वये' लिखा है । यह यन्त्र भी उन्ही भट्टारक धर्मकीर्तिके उपदेश स्थापित हुआ है जिन्होंने थूबोनकी पूर्वोक्त प्रतिमा को प्रतिष्ठितं कराया था । पर उसमें तो 'पौरपट्ट' खुदा है और इसमें 'परवार' । इससे भी यह स्पष्ट होता है पौरपट्ट और परवार एक ही हैं और यह लेख लिखनेवालेकी इच्छा पर था कि वह चाहे पौरपट्ट या पौरपाट लिखे और चाहे परवार । अर्थात् परवार शब्द ही संस्कृत लेखों में 'पौरपट्ट' बन जाता था । परवार और पोरवाड़ अब हमें यह देखना चाहिये कि इस 'पौरपाट या 'पौरवाट' के सम्बन्ध में अन्यत्र भी कुछ जानकारी मिलती है या नहीं । यह सोचते ही हमारा ध्यान सबसे पहले नाम साम्य के कारण वैश्योंकी एक और प्रसिद्ध जाति पोरवाड़की ओर जाता है, जिसकी आबादी दक्षिण मारवाड़, सिरोही राज्य और गुजरात में काफी तादाद में है । कुछ लेखों और ग्रंथोंमें इसे भी परवार जाति के समान पौरवाट या पौरपाट कहा गया 'वाट' या 'वाटक' और 'पाट' या 'पाटक' शब्द भौगोलिक नामों के साथ विभागके अर्थमें प्रयुक्त होते. '' '' हो जात देखो स्व० रा० ब० हीरालाल कृत इन्सक्रिप्शन्स क सी०पी एण्ड बरार, पृ० २४ और ८७

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