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परवार जातिके इतिहास पर कुछ प्रकाश
[ले-श्री पं० नाथूरामजी 'प्रेमी']
उपोद्घात ..... ही मालूम होती है । जैनधर्मके दिग़म्बर सम्प्रदायकी इस समय इस बातकी चर्चा बड़े जोरों पर है कि यह अनुयायिनी है। अन्य जातियोंके समान न इसमें
परवार जातिका एक इतिहास तैयार किया कोई श्वेताम्बर सम्प्रदायका अनुयायी है और न जैनेजाय । अपनी प्राचीनता और गत-गौरवकी कहानी तर सम्प्रदायोंका । हाँ, इसमें कुछ लोग तारन पंथके जाननेकी किसे इच्छा नहीं होती है परन्तु वास्तव में अनुयायी अवश्य हैं जो 'समैया' कहलाते हैं । दिगम्बर जिसे इतिहास कहते हैं उसका लिखना इतना सहज
सम्प्रदायकी और सब बातोंको मानते हुए भी मूर्ति पूजा नहीं है जितना कि लोग समझते हैं । जातियोंका इति
नहीं करते, केवल शास्त्रोको पूजते हैं और वे शास्त्र हास लिखना तो और भी कठिन है। क्योंकि इसके
गिनतीमें चौदह हैं, जिन्हें विक्रमकी सोलहवीं शताब्दीमें लिए जो उपयोगी सामग्री है अभी तक उसे प्रकाशमें
तारनस्वामी नामक एक संत ने रचा था। लानेकी ओर ध्यान ही नहीं दिया गया है। फिर भी
___ परवारोंके अठसखे, छहसखे, चौसखे और दोसखे जो कुछ सामग्री मिल सकी है उसके श्राधर पर मैं इस
ये चार भेद किसी समय हुए थे, जिनमें से इस सम लेखमें कुछ प्रकाश डालनेका प्रयत्न करूँगा।
केवल अठसखे और चौसखे रह गये हैं। सुना जाता
है कि दोसखे परवारों के भी कुछ घरोंका अस्तित्व है, परवार जातिका परिचय और उसके भेद परन्तु हमें उनका ठीक पता नहीं है। लेख शुरू करने के पहले यह ज़रूरी है कि परवार
जातियोंकी उत्पत्ति कैसे होती है ? जातिका थोड़ा सा परिचय दे दिया जाय । इस बारेमें हमें इतना ही कहना है कि वैश्योंकी जो सैकड़ों
परवार जातिकी उत्पत्ति पर गहराईसे विचार करजातियाँ है, परवार जाति भी उन्हींमें से एक है । बुंदे
नेके लिए यह ज़रूरी है कि पहले यह जान लिया जाय
कि भारतवर्षकी उसके समान अन्य जातियोंकी उत्पत्ति लखण्ड, मध्यप्रदेशके उत्तरीय ज़िले, मालवेकी ग्वालियर और भोपाल आदि रियासतोंके कुछ हिस्से, प्रधा
कैसे होती रही है। इसके लिए पहले हम भगवजिन नतासे इन्हींमें यह जाति श्राबाद है । दि. जैन डायरे
सेनाचार्यका मत उद्धृत करते हैं। भगवजिनसेनके क्टरी (सन् १६१४ ) के अनुसार परवारोंकी जनसंख्या
कथनानुसार पहले मनुष्य जाति एक ही थी, पीछे जीलगभग ४२ हज़ार है । साहूकारी, जमींदारी, दूकान
विकाओंके भेदके कारण वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य दारी और बज़ाज़ी इस जातिको मुख्य जीविकाएँ हैं।
और शूद्र इन चार भेदोंमें बँट गई । रंग रूप और शरीर-संगठनसे यह शुक्ल वर्ण आर्य जाति आदिपुराण पर्व २८ श्लोक ४५ ।