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अनेकान्त
वीर निर्वाण सं० २४६६
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कोटी कोटिकी निवृत्यर्थ जान पड़ता है ।
'तपसे निर्जरा भी होती है।' - नामगोत्रयोविंशतिः ॥८॥
यह सूत्र और उमास्वातिका दूसरा सूत्र दोनों प्रायः 'नाम और गोत्र कर्मकी उस्कृष्ट स्थिति बीस कोडा एक ही है-वहाँ 'च' शब्दका प्रयोग है तब यहाँ उस कोडी सागरकी है।
के स्थान पर 'अपि' शब्दका प्रयोग है। अर्थमें कोई .. यह सूत्र उमास्वातिके 'विंशतिनामागोत्रयोः' सूत्र भेद नहीं । तपसे संबर और निर्जरा दोनों ही होते हैं, यह के बिल्कुल समकक्ष है । परन्तु यह सूत्र नम्बर ७ पर 'च' और 'अपि' शब्दोंके प्रयोगका अभिप्राय है । होना चाहिये; क्योंकि ८ ३ नम्बर पर होने के कारण इस उत्तमसंहननस्यांतर्मुहूर्तावस्थापि ध्यान ॥३॥ में वर्णित स्थिति पूर्व सूत्रके सम्बन्धानुसार २० सागरकी 'उत्तम संहननवालेके ध्यान अन्तमुहूर्त पर्यंत हो जाती है-२० कोडाकोडी सागरकी नहीं रहती- अवस्थित रहने वाला होता है।' और यह सिद्धान्त शास्त्र के विरुद्ध है।
ध्यान अन्तरंग तपका एक भेद है, वह ज्यादासे इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे अष्ट- ज्यादा अन्तर्मुहूर्त-एक मुहूर्त-पर्यन्त ही स्थिर रहने मोध्याय ॥८॥
वाला होता है,और वह भी उत्तम संहनन वाले के । हीन 'इस प्रकार श्री बृहत्प्रभाचंद्र विरचित तत्त्वार्थ सूत्र संहननवालेका ध्यान किसी भी विषय पर एक साथ इतनी में पाठवां अध्याय समाप्त हुआ।
देर तक नहीं ठहर सकता। उमास्वातिका 'उत्तमसंहनन
स्यैकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानमान्तर्मुहूर्तात्' यह २७वाँ छ नववाँ अध्याय
सूत्र भी इसी श्राशयका है । विशेषता इतनी ही है कि गुप्त्यादिना संवरः ॥१॥
उमास्वातिने 'एकाग्रचिन्तानिरोधः' पदके द्वारा ध्यानका . 'गुप्ति श्रादिके द्वारा संवर (कर्मास्रवका निरोधी स्वरूप भी साथमें बतला दिया है। होता है।'
तच्चतुर्विधं ॥४॥ । यहाँ 'श्रादि' शब्दसे समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परि
वह ध्यान चार प्रकारका है।' पहजय और चारित्र नामके पागम कथित संवर-भेदोंका
यहाँ चारकी संख्याका निर्देश करनेसे अागमप्रसिद्ध उनके उपभेदों-सहित संग्रह किया गया है, और इस बात, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल ऐसे चारों भेदोंका संग्रह लिये इस सूत्रका विषय बहुत बड़ा है । उमास्वातिका ।
किया गया है । उमास्वातिका इसके स्थान पर 'पातं. 'सगुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचरित्रैः' नामका सूत्र
रौद्रधर्म्यसुक्तानि' सूत्र है, जो ध्यान नामोंके स्पष्ट इसी श्राशयका स्पष्टतया व्यंजक है। उनके तत्त्वार्थ
और
उल्लेखको लिये हुए है। सूत्रमें गुप्ति आदिके उपभेदोका भी अलग अलंग सूत्रों
. आद्य संसारकारणे ॥५॥ में निर्देश किया गया है, जब कि यहाँ वैसा कुछ भी
. परे मोक्षस्य ।।६।। नहीं है। तपसा निर्जराऽपि ॥२॥
- * श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें 'ध्यानम्' तकके अंशको
____ २७ वाँ सूत्र और 'आमुहूर्तात' को २८ वाँ सूत्र बत. * ति।
लाया है।