Book Title: Anekant 1940 05
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ वर्ष ३, किरण . ] प्रभाचन्द्रका तत्वार्थ सूत्र दानं' इस सूत्रके समकक्ष है । दोनोंका श्राशय एक ही उत्तरा अष्ट चत्वारिंशच्छतं ॥ ४ ॥ है । इस सूत्रका 'स्वपरहिताय' पद उमास्वातिके 'अनु- 'उत्तर प्रकृतियाँ एकसौ अड़तालीस हैं।' ग्रहार्थ' पदसे अधिक स्पष्ट जान पड़ता है। ____ ज्ञानावरणकी ५, दर्शनावरणकी ६, वेदनीयकी २, ___ इति प्रभा चन्द्रविरचिने तत्त्वार्थसूत्रे सप्तमो- मोहनीयकी २८, आयुकी ४, नामकी ६१, गोत्रकी २ ध्यायः ॥ ७॥ और अन्तरायकी ५ प्रकृतियाँ मिलकर उत्तर प्रकृति'इस प्रकार प्रभाचन्द्रविरचित तत्त्वार्थसूत्रमें योंकी संख्या १४८ होती है। उमास्वातिने मूल प्रकृतिसातवाँ अध्याय समाप्त हुना।' योंके नामाऽनन्तर उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका निर्देशक जो सूत्र 'पंचनवद्वयष्टाविंशति' इत्यादि दिया है उसमें आठवाँ अध्याय नाम कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंकी संख्या ४२ बतलाते हुए उत्तर प्रकृतियोंकी कुल संख्या ६७ दी है। नामकर्मकी मिध्यादर्शनादयो बंधहेतवः ॥ १ ॥ उत्तरोत्तर प्रकृतियोंको भी शामिल करके उत्तर 'मिथ्यादर्शन आदि बन्धके कारण हैं।' प्रकृतियोंकी कुल संख्या १४८ हो जाती है । उन्हीं .. यहाँ 'श्रादि' शब्दसे आगम-कथित उन अविरत, सब उत्तर प्रकृतियोंका यहाँ निर्देश है । प्रमाद, कषाय और योग नाम के बन्धहेतुअोंका संग्रह ज्ञानावरणादित्रयस्यांतरायस्य च त्रिंशत्सागकिया गया है, जिनका उमास्वातिने भी अपने इसी रोपमकोटीकोट्यः पराध्या (परा?) स्थितिः ॥५॥ अध्यायके पहले सूत्र में नामनिर्देशपूर्वक संग्रह किया है। 'ज्ञानावरणादि तीन कर्मों की और अन्तरायकी - चतुर्धा बन्धाः ॥२॥ उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडा कोडी सागरकी है।' 'बन्ध चार प्रकारका होता है।' यह सूत्र उमास्वाति के 'आदिस्तिसृणामन्तरायस्य' यहाँ चारकी संख्याका निर्देश करने से अागम- इत्यादि सूत्रके समकक्ष है और उसी आशयको लिये निर्दिष्ट प्रकृति-स्थिति-अनुभाग-प्रदेशबन्ध नामके चारों हुए है। बन्धोंका संग्रह किया गया है | और इसलिये यह स्त्र महिनीयस्य सप्ततिः ॥६॥ और उमास्वातिका 'प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः' 'मोहनीय कर्मको उस्कृष्ट स्थिति सतरकोडाकोटी सूत्र दोनों एक ही श्राशयको लिये हुए हैं । सागर की है।' ... मूलप्रकृतयोऽष्टौ ॥३॥ . उमास्वातिके सूत्र में 'सप्ततिः' पद पहले और 'मृल प्रकृतियाँ पाठ हैं।' 'मोहनीयस्य' पद बादमें है। आगम-कथित कर्मोकी मूल आठ प्रकृतियाँ ज्ञाना त्रयस्त्रिंशदेश्वायुषः ॥७॥ चरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम 'मायुकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस ही सागर की है। और गोत्र हैं, और इसलिये इस सूत्रका वही श्राशय है यह सूत्र उमास्वातिके 'अयविंशसागरोपमाण्याजो उमास्वाति के 'मायो ज्ञानदर्शनाबरण' इत्यादि युषः' सूत्रके समान है । इसमें प्रयुक्त हुश्रा 'एव' शब्द सत्रका है। + उत्तराष्ट। । ।

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