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अनेकान्त
वीर निर्वाण सं० २४६६
शीलसप्तकं च ॥७॥
व्रत-शीलादिकके भी पाँच पाँच ही अतीचारोंका अपना 'सात शील भी श्रावकोंके गुण हैं।' क्रम रक्खा है, इसलिये सम्यग्दर्शनके शेष अतीचारोंका
सप्त शील के नामोंमें भी प्राचार्यों में परस्पर कुछ प्रशंसा-संस्तवमें अन्तर्भाव कर लेना चाहिये । यहाँ मत भेद है * | उमास्वातिने अपने 'दिग्देशानर्थदण्ड' 'शंकाद्याः' पद पर पाठका अंक दिया है, इससे भी नामक सूत्रमें उनके नाम दिग्विरति, देशविरति, अन- आठ अतीचारोंका ही ग्रहण जान पड़ता है। र्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोग
बंधाक्ष्योव्रतानां ॥९॥ परिमाण, अतिथिसंविभाग दिये हैं जब कि कुन्दकुन्दा- 'बंध आदिक व्रतोंके अतीचार हैं।' चार्यने चारित्र प्राभृत में देशव्रतका ग्रहण न करके सप्तम यहाँ 'व्रतानां' पदके द्वारा अहिंसादिक सब व्रतोंस्थान पर 'सल्लेखना' का विधान किया है । इसी तरह का और 'पादि' शब्दके द्वारा उनके पृथक् पृथक्
और भी थोड़ा थोड़ा मतभेद है । यहाँ संभवतः कुन्द- अतीचारोंका संग्रह किया गया है। परन्तु उनकी कुन्द प्रतिपादित गुणवत-शिक्षाव्रतात्मक सप्त शीलोंका संख्याका किसी रूप में भी उल्लेख नहीं किया है। यह ही उल्लेख जान पड़ता है; क्योंकि आगे संन्यास सूत्र बहुत ही संक्षिप्त-सूचनामात्र है। इसमें उमास्वा( सल्लेखना ) का कोई अलग विधान न करके १० वें तिके २५ से ३२ अथवा ३६ नम्बर तक सूत्रोंके विषय सूत्रमें उसके अतीचारोंका उल्लेख किया गया है। का समावेश किया जा सकता है ।
शंकाद्याः + सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ॥ ८॥ मित्रस्मृत्याद्याः संन्यासस्य ॥ १० ॥ . 'शंका आदि सम्यग्दर्शनके प्रतीचार हैं।' 'मित्रस्मृति प्रादि संन्यास ( सल्लेखना ) के अतो
यहाँ अतीचारोंकी संख्याका निर्देश न होनेसे श्रादि' चार हैं।' शब्दद्वारा जहाँ उमास्वाति-सूत्र-निर्दिष्ट काँक्षा, विचि- यहाँ भी अतीचारोंकी संख्याका कोई निर्देश नहीं कित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा, अन्यदृष्टि संस्तव इन चार किया। 'आदि' शब्दसे सुखानुबन्ध, निदाम नामके अतीचारोंका ग्रहण किया जा सकता है वहाँ सम्यग्द- अतीचारोंका और क्रम-व्यतिक्रम करके यदि ग्रहण र्शनके निःशंकित अंगको छोड़कर शेष सात अंगोंके किया जाय तो जीविताकाँक्षा तथा मरणाकाँक्षाका भी प्रतिपक्षभूत काँक्षा, विचिकित्सा, मूढदृष्टि, अनुपगहन, ग्रहण किया जा सकता है, जिन सबका उमास्वातिके अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना नामके 'जीवितमरणाशंसा' इत्यादि सूत्रमें उल्लेख है। दोषों-अतीचारों-का भी ग्रहण किया जा सकता है। स्वपरहिताय स्वस्यातिसर्जनं दानं ॥ ११ ॥ सर्वार्थसिद्धि में अष्ट अंगोंके प्रतिपक्षभूत अाठ अतीचार 'अपने और परके हितके लिये अपनी वस्तुका होने चाहिये, ऐसी शंका भी उठाई गई है और फिर त्याग करना दान है। उसका समाधान यह कहकर कर दिया है कि ग्रन्थकारने यह सूत्र उमास्वातिके 'अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो
* देखो, जैनाचार्योंका शासनभेद, गणव्रत और * श्वेताम्बरीय सूत्रपाठके अनुसार ये सूत्र नं०२० शिक्षाबत प्रकरण पृ० ४१ से ६४ ।
से प्रारंभ होते हैं और था।
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