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अनेकान्त
[वैसाख, वीरनिर्वाण सं०२४६६
गुलाबका झाड़ लाया उसे पानी तो अच्छा दिया उसमें तैयार करलेंगे पर बेचारे गाँव वालोंकी तो वृक्षोंकी नये नये पत्ते भी श्राये पर कटिंग न किया, धीरे धीरे हड्डियाँ जलाये बिना गुजर ही नहीं। इस प्रकार अतिउसके पत्ते काले पड़ गये और झाड़ उखड़ गया । एक · वादी अहिंसा भाव अगर बेचारे गरीब लोगोंके मनमें जानकारसे पछने पर मालम हुआ कि उसका कटिंग घुस जाय और उसके अनुसार आत्महत्या करनेको करना जरूरी था। तबसे मैं बराबर कटिंग करता हूँ। अगर वे अपनेको तैयार न पायें, अहिंसाको अव्यवहाय कटिंगके बाद ही उसमें बाढ़ होती है फूल पाते हैं। समझ बैठे, तो शताब्दियोंमें जो थोड़ा बहुत विकास हो बकरेकी टांग काटना ऐसा जरूरी नहीं है, न टांग पाया है यह ध्वस्त हो जाय । घर घरमें शाक और काटनेसे उसमें बाढ़ आती है । इसलिये अब मैं वृक्षोंके मांस सब एकाकार हो जाय । फलों पत्रों आदिको गायके दूधकी तरह ही मानता हूँ। हृदयके समभावको खूब बढ़ाइये, पर समभावके शाखाओंके कटिंगको एक तरहका अपरेशन मानता हूँ। नाम पर हमारे भाव ऐसे अतिवादी न हो जाँय कि और खास कर गुलाबके कटिंगको तो इसी तरह करता कौड़ियाँ गिननेमें हम मुहरे लुटा दें और दोई दीनसे है जैसे छोटे बच्चेके बाल बनवा रहा होऊँ। बकरेकी जाँय । अगर कभी भावुकताके उफानसे ऐसे भाव हो भी टांग तोड़ने सरीखी कल्पना मुझे नहीं होती। जाँय तो उन्हें आत्मनेपद ही रक्खें। दुनिया के सामने ___ जंगलवालोंसे मालूम हुआ कि सागौन श्रादिके रखकर उन्हें परस्मैपद बनाना और फिर भी अात्मनेपद झाड़ काटने पर तीन चार साल में फिर वैसी ही शाखाएँ की दुहाई देना चिल्ला चिल्लाकर अपने वर्तमान मौनकी तैयार हो जाती हैं अन्यथा पुराने अंग ही जरठ होते घोषणा करना है। रहते हैं। पशु पक्षियोंके अंग कट जाने पर वे इस प्रकार अन्तमें यही कहना है कि जैनधर्मका अहिंसावाद दूने उत्साहसे नहीं बढ़ते।
बहुत सूक्ष्म होकर भी वह निरतिवाद है, व्यवहार्य है, मेरा मतलब यह नहीं है कि बनस्पतियों तक हमारा उसमें योग्यायोग्य विवेक है वह प्राणियोंके चैतन्यकी दयाभाव न पहुँचे, मतलब इतना ही है कि हम पशु- तरतमताके अनुसार हिंसा अहिंसाका विचार करता है वधसे उसकी समानता बताने न लग जाँय । अगर हम और मांसाहार शाकाहारकी विभाजक रेखाको काफी यह सोचने लगें कि घरके माड़ोंका काटना तो ठीक, स्पष्ट रखता है। शाकाहारमें मांसाहारकी कल्पना भी पर जो बेचारे जंगलमें ऊगे हैं उनका क्या अपराध ? नहीं होने देता। यह अहिंसाका विवेकपर्ण सच्चा रूप है। उनके लिये हमने क्या किया है ? इस प्रकार हम जंगल जिन पत्रोंने श्री कालेलकर साहिबके भावकता पर्ण से लकड़ी लेना बन्द करदें तो शहरोंके महलोंकी बात विचार प्रगट किये हैं उनका कर्तव्य है कि वे उनका तो दूरवे तो शायद लोहा और कांक्रोटके बल पर बन दूसरा पहल, जो कि विवेक तथा व्यावहारिकता पर भी जाय जिनमें वृक्षोंकी हड्डियाँ दिखाई न दें, पर गांवों अवलम्बित है अवश्य प्रगट करें। अन्यथा इस प्रकार की झोपड़ियाँ मुश्किल हो जायगी। बेचारे ग्रामीण अहिंसाका अधूरा और अतिवादी विवेचन घोर हिंसाका लोहा चना सिमिट कहाँसे लायेंगे। शहर वाले तो उत्तेजक होगा। बिजलीका बटन दबाकर प्रासुक और शुद्ध भोजन
-सत्य सन्देशसे