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अनेकान्त
worship) की कारण हुई है। यही वैदिक ऋषियोंकी दृष्टि थी ।
अनुभव्यदृष्टि (Objective outlo k ) वाले जडवादी वैज्ञानिक अनुभव्यजगत (object) को ही सत्य मानते हैं और अनुभावक आत्मा (Subject) को स्थूल जडकी ही एक अभिव्यक्ति समझते हैं । यह दृष्टि ही जडवादकी आधार हैं । वे लोग जगतमें नियमानुशासित व्यवस्थाका अनुभव करते हैं, प्रत्येक प्राकृतिक अभिव्यक्तिको विशेष कारणोंका कार्य बतलाते हैं, उन कारणों में एक क़म और नियम देखते हैं और उन कारणों पर विजय पानेसे अभिव्यक्तियों पर विजय पानेका दावा करते हैं । उनके लिये अभिव्यक्ति और कारणोंका कार्यकारण-सम्बन्ध इतना निश्चित और नियमित है कि ज्योतिषज्ञ, शकुनविज्ञ, सामुद्रिकज्ञ आदि नियत विद्याओं के जानने वाले वैज्ञानिक, विशेष हेतुओंको देखकर, भविष्य में होनेवाली घटनाओं तकको बतला देने में अपनेको समर्थ मानते हैं । सच पूछिये तो यह कार्य कारण सम्बन्ध (Law of causation) ही इन तमाम विज्ञानोंका आधार है ।
अनुभावकदृष्टि (Subjective outlook) को ही महत्ता देनेवाले तत्त्वज्ञ आत्मा को ही सर्वस्व सत्य मानते हैं । ज्ञान-द्वारा अनुभव में आनेवाले जगतको स्वप्नतुल्य मोहग्रस्त ज्ञानकी ही सृष्टि मानते हैं । उनके विचार में ज्ञान से बाहर अनुभव्यजगत ( Objective reality ) की अपनी कोई स्वतः सिद्ध सत्ता नहीं है। यह दृष्टि ही अनुभवमात्रवाद (Idealism) की जननी है और शंकर के
[वर्ष ३, किरण १
अद्वैतवादका आधार है।
व्यवहारदृट्टि (Practical View ) से देखने वाले चार्वाक लोग उन ही तत्त्वोंको सत्य मानते हैं जो वर्तमान लौकिक जीवनके लिये व्यवहार्य और उपयोगी हैं । इस दृष्टिसे देखने वालों के लिये परलोक कोई चीज़ नहीं । उन अपराधों और परोपकारी कार्यों के अतिरिक्त, जो समाज और राष्ट्र द्वारा दण्डनीय और स्तुत्य हैं, पुण्य-पाप और कोई वस्तु नहीं । कञ्चन और कामिनी ही नन्दकी वस्तुएँ हैं। वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी ही परमतत्त्व हैं । वे ही प्रत्येक वस्तु
आधार हैं। मृत्युजीवनका अन्त है । इन्द्रिय बोध ही ज्ञान हैं — इसके अतिरिक्त और प्रकारका ज्ञान केवल भ्रममात्र है । इन्द्रियबोध से अनुभव में आने वाली प्रकृति ही सत्य है ।।
यह दृष्टि ही सामाजिक और राजनैतिक अनुशासनकी दृष्टि है ।
नैगमदृष्टि वा संकल्पदृष्टि ( Imaginary View ) से देखनेवाले वस्तुकी भूत और भावी श्रवस्था अनुपस्थित होते हुए भी, संकल्पशक्तिद्वारा उपादान और प्रयोजनकी सदृश्यता और विभिन्न कालिक अवस्थाओंकी विशेषताओंको संयोजन करते हुए वस्तुको वर्तमान में त्रिकालवर्ती सामान्य विशेषरूप देखते हैं । यह दृष्टि लोगों की दृष्टि है।
f.
Das Gupta-A History of Indian Philosophy 1922, P. 439.
1. S. Radha Krishnon-Indian Philosophy Vol. 1, 2nd edition, P. 279.
( ) राजवार्तिक पृ० ४५४ ( श्रा) द्रव्यानुयोग - तर्कणा ६-६