________________ कार्तिक वीर निर्वाण सं०२४६६] साहित्य-परिचय और समालोचन समाचारको गतवर्षके अनेकान्तकी प्रथम किरणमें वे बधाईके पात्र हैं। उनकी प्रस्तावनाको पूर्णरूपसे ही प्रकट कर दिया था (पृ० 103) और यह भी देखनेका यद्यपि मुझे अभी तक यथेष्ट अवसर नहीं सूचित कर दिया था कि ये ग्रंथ सिंघी जैन-ग्रंथ- मिल सका, फिर भी उसके कुछ अंशों पर सरसरी मालामें छप गये हैं और जल्दी ही भूमिकादिसे तौरसे नजर डालभे पर उसमें विद्वानोंके लिये सुसज्जित होकर प्रकाशित होने वाले हैं, परन्तु विचारकी काफी सामग्री मालम होती है / कितनी इनके प्रकाशनमें पूरा एक साल और लग गया। ही बातें विशेष विचारके योग्य भी हैं; जैसे और इसलिये अब अक्टूबर में प्रकाशित होकर अकलंकका समय, जिसे उन्होंने विक्रमकी ७वीं आने पर मुझे सबसे पहले इस स्तम्भके नीचे इन्हीं शताब्दीके स्थानपर ८वीं-९वीं शताब्दी सिद्ध करनेका संक्षिप्त परिचय देनेमें आनन्द मालूम होता है ! का यत्न किया है। इस संग्रहमें 'न्यायविनिश्चय' के साथ उसके दिगम्बर सम्प्रदायके इन लुप्तप्राय महत्वपूर्ण वादिराजसूरिकृत विवरणपरसे कारिकाओंके ग्रन्थरत्नोंका एक श्वेताम्बर-संस्था (सिंघी-जैनउत्थान-वाक्योंको ज्योंका त्यों तथा संक्षेपमें उद्धृत ज्ञानपीठ ) द्वारा उद्धार देखकर, जहाँ दिगम्बरकिया गया है, जिससे कारिकाओंका अर्थ समझने समाजकी अपने साहित्यके प्रति उपेक्षा-उदासीनता, और उनके सम्बन्धको मालूम करनेमें आसानी हो; और कर्तव्यविमुखता पर खेद होता है वहाँ श्वेतीनों ग्रन्थों पर जुदी-जुदी टिप्पणियाँ अलग दी ताम्बर भाइयोंको इस उदारता, दूरदृष्टिता और गई हैं; तीनोंका विषयानुक्रम भी साथमें लगाया गुणग्राहकताकी प्रशंसा किये बिना भी नहीं रहा गया है; 9 उपयोगी परिशिष्ट दिये हैं, जिनमें इन जाता। इसके लिये सिंघी जैनग्रंथमालाके सुसंचा. ग्रन्थोंके कारिकाओंकी अनुक्रमणिकाएँ, अवतरण लक मुनि श्रीजिनविजय, उसके संस्थापक एवं वाक्योंकी सूचियाँ और सभी दार्शनिक तथा लाक्ष- पोषक उदारचेता बाबू बहादुरसिंहजी सिंघी और णिक शब्दोंकी सूची खास तौरसे उल्लेखनीय हैं। इन ग्रंथोंके इस तरह प्रकाशनकी योजना तथा इनके अतिरिक्त ग्रंथके शुरूमें क्रमशः ग्रंथमालाके प्रेरणा करनेवाले समर्थ विद्वान प्रज्ञाचक्षु पं० सुखमुख्य सम्पादक श्री जिनविजयजीका 'प्रास्ताविक', लालजी विशेष धन्यवादके पात्र हैं। इस प्रकारके पं० सुखलालजी संघवी दर्शनाध्यापक हिन्दू प्रयत्न निःसन्देह साम्प्रदायिक कट्टरताको मिटाने के विश्वविद्यालय, काशीका 'प्राक्कथन', न्यायाचार्य प्रधान साधन हैं, और इसलिये मैं इनका हृदयसे पं० महेन्द्रकुमारजीका 'सम्पादकीय वक्तव्य' और अभिनन्दन करता हूँ। लिखे गये हैं, सब मिलकर ग्रन्थकी उपयोगिताको भी अच्छा पुष्ट लगाया है और जिल्द सुन्दर तथा बहुत ज्यादा बढ़ा रहे हैं / इस ग्रंथके सम्पादनमें मनोमोहक है / परिश्रमादिको देखते हुए मूल्य भी न्यायाचार्यजीने काफी परिश्रम किया है और उस- अधिक नहीं है। संक्षेपमें ग्रन्थ विद्वानोंके अपने के कारण उन्हें जो सफलता मिली है उसके लिये पास रखने, मनन करने और लायब्रेरियों, ज्ञान