Book Title: Anekant 1939 11
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 129
________________ कार्तिक, वीरनिर्वाण सं०२४६६] तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति भावार्थ-'तब कुन्दकुन्द ही इस तत्त्वार्थशास्त्रके कहते हैं कि हमारे वृद्धों-द्वारारचित इस तत्वार्थसूत्रको प्रथम कर्ता हैं,' इस संशयको दूर करनेके लिये हम 'यः पाकर और उसे समीचीन जानकर श्वेताम्बरोंने स्वेकुंदनामेत्यादि' पद्यके द्वारा स्पष्ट बतलाते हैं कि-पर च्छाचारपूर्वक कुछ सूत्रोंको तो तिरस्कृत कर दिया और तीर्थिकों (!) के द्वारा जो कुन्दकुन्दको कुन्दकुन्द, इडा- कुछ नये सूत्रोंको प्रक्षिप्त कर दिया-अपनी अोरस चार्य (?), पद्मनन्दी उमास्वाति * इत्यादि नामान्तरों मिला दिया है'। इस भ्रमको दूर करने के लिये हम की कल्पना करके उमास्वाति कहा जाता है वह हमारे 'श्वेताम्बरसिंहानां' इत्यादि पद्य कहते हैं, जिसका इस प्रकरणकर्तासे, जिसका स्पष्ट 'उमास्वाति' ही प्रसिद्ध अभिप्राय यह है कि-श्वेताम्बरसिहोंके, जो कि स्वनाम है, भिन्न ही है, इस बातको हम बार-बार क्या भावसे ही विद्याओंके राजाधिराज हैं और स्वयं अत्यन्त बतलावें। उद्दड-ग्रन्थोंके रचने में समर्थ हैं, निव-निर्मित-शास्त्रोका श्वेतांबरसिंहानां सहनं राजाधिराजविद्यानां / ग्रहण किसी प्रकार भी नहीं होता है-वे परनिर्मित निवनिर्मितशास्त्राग्रहः कथंकारमपि न स्यात् // 6 // शास्त्रको तिरस्करण और प्रक्षेपादिके द्वारा कदाचित् भी टिप्प-नन्वत्र कुतोलभ्यते . यत्पाठांतरसत्राणि अपने नहीं बनाते हैं; क्योंकि जोदूसरेकी वस्तुको अपदिगंबरैरेव प्रक्षिप्तानि ? परे तु वयंति यदस्मद्वबैरचितमे नाते हैं—अपनी बनाते हैं--वे चोर होते हैं, महान् तत्प्राप्य सम्यगिति ज्ञात्वा श्वेतांबराः स्वैरं कतिचित्सू- अाशय के धारक तो अपने धनको भी निर्विशेषरूपसे वाणि तिरोकुर्वन् कतिचिच्च प्राषिपन्निति भ्रमभेदार्थ अवलोकन करते हैं उसमें अपनायतका (निजत्वका)'श्वेतांबरसिंहानामित्यादि' ब्रूमः / कोऽर्थः श्वेतांबर भाव नहीं रखते।' सिंहाः स्वयमत्यंतोइंस्ग्रंथग्रंथनप्रभूष्णवः परनिर्मितशास्त्रं तिरस्करण-प्रक्षेपादिभिर्न कदाचिदप्यात्मसाद्विदधीरन् / ___ पाठांतरमुपजीव्य भ्रमंति केचिद्वथैव संतोऽपि / यतः 'तस्करा एव जायंते परवस्त्वात्मसात्कराः, निर्वि- सर्वेषामपि तेषामतः परं भ्रांतिविगमोऽस्तु // 7 // शेषेण पश्यंति स्वमपि स्वं महाशयाः।' . टिप्प०-अतः सर्वरहस्यकोविदा अमृतरसे कल्पनाभावार्थ-यहाँ पर यदि कोई कहे कि 'यह बात विषपूरं न्यस्यमानं दूरतस्त्यक्त्वा जिनसमयार्णवानुसारकैसे उपलब्ध होती है कि जो पाठांतरित सूत्र हैं वे रसिका उमास्वातिमपि स्वतीर्थिक इति स्मरंतोऽनंतसंदिगम्बरोंने ही प्रक्षिप्त किये हैं ? क्योंकि दिगम्बर तो सारपाशं पतिष्यद्भिविशदमपि कलुपीकतु कामैः सह * जहाँ तक मुझे दिगम्बर जैनसाहित्यका परिचय निवैः संगं माकुर्वन्निति। है उसमें कुन्दकुन्दाचार्यका दूसरा नाम उमास्वाति है भावार्थ-कुछ संत पुरुष भी. पाठान्तरका उपयोग ऐसा कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। कुन्दकुन्दके जो करके-उसे व्यवहारमें लाकर-वृथा ही भ्रमते हैं, उन पाँच नाम कहे जाते हैं उनमें मूल नाम पमनन्दी तथा सबकी भ्रान्तिका इसके बादसे विनाश होवे / प्रसिद्ध नाम कुन्दकुन्दको छोड़कर शेष तीन नाम एला अतः जो सर्वरहस्यको जानने वाले हैं और जिनाचार्य, वक्रग्रीव और गृद्धपिच्छाचार्य हैं। तथा कुन्दकुन्द और उमास्वातिकी भिन्नताके बहुत स्पष्ट उल्लेख पाये गमसमुद्र के अनुसरण-रसिक हैं वे अमृतरसमें न्यस्यजाते हैं / अतः इस नामका दिया जाना भ्रान्ति मान कल्पना विषपूरको दूरसे ही त्यागकर, उमास्वातिको भी स्वतीर्थिक स्मरण करते हुए, अनन्त संसारके जाल

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