Book Title: Anekant 1939 11
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 127
________________ कार्तिक, वीर निर्वाण सं०२४६६] तत्त्वार्थाधिगमसूत्रकी एक सटिप्पण प्रति इसका ठीक पता मालूम नहीं हो सका; क्योंकि 'जैन- चिरं दीर्घजीयाज्जयं गम्यादित्याशीर्वचोस्मा लेखकानां ग्रन्थावली' और 'जैनसाहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' जैसे निर्मलग्रंथरकाय प्राग्वचनचौरिकायामशक्यायेति / " . ग्रंथों में किसी भी रत्नसिंहके नाम के साथ इस टिप्पण भावार्थ-जिसने इस तत्त्वाथशास्त्रको अपने ही ग्रन्थका कोई उल्लेख नहीं है। और इसलिये इनके वचनके पक्षपातसे मलिन अनुदार कुत्तोंके समूहों द्वारा समय-सम्बन्धमें यद्यपि अभी निश्चित रूपसे कुछ भी ग्रहीष्यमान-जैसा जानकर—यह देखकर कि ऐसी कुत्तानहीं कहा जासकता, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि ये प्रकृतिके विद्वान् लोग इसे अपना अथवा अपने सम्प्रविक्रमकी १२वीं-१३वीं शताब्दीके विद्वान् श्राचार्य हेम- दायका बनाने वाले हैं—पहले ही इस शास्त्रकी मूलचन्द्र के बाद हुए हैं;क्योंकि इन्होंने अपने एक टिप्पणमें चूल-सहित रक्षाकी है-इसे ज्योंका त्यों श्वेताम्बरहेमचन्द्र के कोषका प्रमाण 'इति हैमः' वाक्यके साथ सम्प्रदायके उमास्वातिकी कृतिरूप में ही कायम रक्खा दिया है। साथ ही, यह भी स्पष्ट ही है कि इनमें है-वह भाष्यकार (जिसका नाम मालूम नही) चिरंसाम्प्रदायिक-कट्टरता बहुत बढ़ी चढ़ी थी और वह जीव होवे-चिरकाल तक जयको प्राप्त होवे-ऐसा हम सभ्यता तथा शिष्टताको भी उल्लंघ गई थी, जिसका कुछ टिप्पणकार-जैसे लेखकोंका उस निर्मल ग्रन्थके रक्षक अनुभव पाठकोंको अगले परिचयसे प्राप्त हो सकेगा। तथा प्राचीन-वचनोंकी चोरीमें असमर्थ के प्रति आशी (10) उक्त दोनों पद्योंके पर्वमें जो 7 पद्य . दिये र्वाद है। हैं और जिनके अन्तमें "इति दुर्वादापहार" लिखा है पूर्वाचार्यकृतेरपि कविचौरः किंचिदात्मसास्कृत्वा / उनपर टिप्पणकारकी स्वोपज्ञ टिप्पणी भी है। यहाँ व्याख्यानयति नवीनं न तत्समः कश्चिदपि पिशुनः // 2 // उनका क्रमशः टिप्पणी-सहित कुछ परिचय कराया टिप्पा-"प्रथ ये केचन दुरास्मानः सूत्रवचनचौराः जाता है: स्वमनीषया यथास्थानं यथेप्सितपाठप्रक्षेपं प्रदर्य स्वापरप्रागेवैतददक्षिणभषणगणादास्यमानमिव मत्वा / 20 क्योंकि टिप्पणकारने भाष्यकारका नाम न देकर त्रातं समूलचनं स भाष्यकारविरं जीयात् // 1 // उसके लिये 'स कश्चित्' (वह कोई) शब्दोंका प्रयोग टिप्प.-'दक्षिणे सग्लोदारावितिहमा प्रदक्षिणा किया है। जबकि मूलसूत्रकारका नाम उमास्वाति कई असरलाः स्ववचनस्यैव परुपातमलिना इति यावत्त एवं स्सा . स्थानों पर स्पष्ट रूपसे दिया है इससे साफ ध्वनित होता भषणाःकुर्कुरास्तेषां गणेपदास्यमानं प्रहिष्यमानं स्वायत्ती- है कि टिप्पणकारको भाष्यकारका नाम मालूम नहीं था वह उसे मूलसूत्रकारसे भिन्न समझता था / करिष्यमाणमिति यावत्तथाभूतमिवैतत्तत्वार्थशासं प्रागेव भाष्यकारका निर्मलग्रन्थरतकाय' विशेषणके साथ पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येनेति शेषः सह मूलचूलाभ्यामिति 'प्राग्वचनचौरिकायामशक्याय' विशेषण भी इसो बातसमूलचूलं जातं रचितं स कश्चिद् भाष्यकारो भाष्यकर्ता को सूचित करता है। इसके 'प्राग्वचन' का वाच्य तत्त्वार्थसूत्र जान पड़ता है, भाष्यकारने उसे चुराकर ___"दक्षिणे सरलोदारौ" यह पाठ अमरकोशका अपना नहीं बनाया-वह अपनी मनःपरिणतिके है, उसे 'इति हैमः' लिखकर हेमचन्द्राचार्यके कोषका कारण ऐसा करने के लिये असमर्थ था—यही भाशय प्रकट करना टिप्पणकारकी विचित्र नीतिको सूचित यहाँ व्यक्त किया गया है। अन्यथा, उमास्वातिके लिये करता है। इस विशेषणकी कोई जरूरत नहीं थी।

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