________________ अनेकान्त [वर्ष 3 किरण 1 anmamta Homesinfurthem.rea in गृहस्थमें डाला है और उनकी इस परम वीतरागरूप राग देवतालीमें भी रागका प्रवेश कराने के लिये परम प्रतिमा में भी गहस्थ और राजपाटके सब संस्कार घुसेड़े वीतरागरूप प्रतिमाओंमें भी गृहस्थ भोगका संस्कार हैं। अर्थ जिसका यह होता है कि प्रतिष्ठा करनेसे पहले डाल, इन अपनी वीतरामरूप मूर्तियोंको मूर्ति न मान जो यह परम वीतरागरूप प्रतिमा कारीगरने बनाई कर अपने वैष्णव भाईयोंकी तरह इन मूर्तियोंको ही थी उसमें तो एक मात्र वीतरागताही वीतरागता. साक्षात् रागी परमात्मा ठहराकर उनके पूजनेसे उस ही थी, जोप योगी नहीं थी, अब आपने उसमें तरह अपने गृह कार्योंकी सिद्धि चाहने लग गये हैं जिस गृहस्थ और राज भोग के सब संस्कार डालकर ही तरह उनके पड़ोसी भाई “अपने रागी देवताओंको पज "उसको अपने कामकी बनाया है, परन्तु जरा सोचो तो कर करते हैं। सद्दी कि यह काम आपका जैनधर्म के अनुकूल है. या परन्तु इसमें एक बात विलक्षण है और वह यह बिल्कुल ही उसके विपरीत / चाहे कन्वेने हंसकी चाल है कि प्रतिष्ठाविधिमें किसी एक ही प्रतिमाका गर्भ, चली हो या हंसने कन्वेकी चाल चली हो, परन्तु यह जन्म और राजपाट आदि संस्कार होता है। सिर्फ एक चाल न तो हंसकी ही रही है, और न कव्वेकी ही, ही प्रतिमा, जो किमी एक ही तीर्थकर भगवान्की होती किन्तु विलक्षण रूप एक तीसरी ही चाल होगई / वैष्णव है, वह ही एक पालने में झुलाई जाती है, उस ही को लोग अपने भगवानकी रागरूप अवस्थाको पूजते हैं कंकण श्रादि श्राभूषा पहनाये जाते हैं और उस ही के और सीही उनकी प्रतिमा बनाते हैं और जैनी वीतराग पास तीर कमान और ढाल तलवार श्रादि मनुष्य हिंसा के रुप भगवानको पूजते हैं और उसही अवस्थाकी उमकी उपकरण रखे जाते हैं / तब जो भी राग संस्कार पैदा मंतिमा बनाते हैं। इन वीतरागरूप प्रतिमाओंमें ज़रा हो सकते हों वे तो उस एक ही भगवान्की एक प्रतिमामें भी रामरूप भावं आ जाय, उनको वस्त्र प्राभूषण पड़ेंगे, जिसके साथ यह सब लीलाएँ की जावेगी; बाकी पहना दिये जायें या युद्ध के हथियार उनके साथ लगा सैकड़ों प्रतिमाएँ जो वहाँ रक्खी होंगी, उनके साथ ऐसी दिये जायें तो वह प्रतिमाएँ उनके कामकी नहीं रहती लीला न होने से उनमें तो रागके संस्कार किसी तरह भी है; परन्तु जब कारीगर उनको ऐसीही वीतरागरूप नहीं पड़ सकेंगे, वे तो वैसी ही परमवीतरागरूप रहेंगी प्रतिमा बनाकर देते हैं, जैसी वे चाहते हैं तब आजकलके जैसी कि शिल्पीने बना कर दी थीं। तब वे श्राजकलके क्षम' जैनीलीग उन वीतरागरूप प्रतिमाओंको उस जैनियोंके वास्ते पूज्य और उनके गृह कार्योंको सिद्ध वक्त तक क्यों नाकाफ़ी या बिना कामकी समझते हैं करनेवाली कैसे हो जाती हैं ? जब तककी उनके साथ गृहस्थ जीवन और राजभोगकी वास्तवमें बात यही है कि हमने दूसरोंकी रीस करके लीलाएँ करके उनमें रागका संस्कार नहीं कर लेते हैं। और भट्टारकोंके बहकायेमें आकर अपनी असली चालक्या इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनधर्म अब परम को खोदिया है, जिससे हम इधरके रहे हैं न उधरके / वीक्सग धर्म नहीं रहा है किन्तु अपने इरवक्तके पड़ौसी हमारी पहली चाल उन प्राचीन प्रतिमाओंसे साफ वैष्णाच भाइयोंको अपने परमरांगी देवताओंकी ही मालूम होती है जो धरतीमंसे निकलती हैं, जिनपर भक्ति-स्तुति पूजा बंदना करता देख अपने परम वीत- प्रतिष्ठित होनेका कोई चिन्ह नहीं होता है और जिनको